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________________ 11.4.8] महाकळ सिंह विरहउ पस्नुपणचरिउ [205 पत्तालवो वि णं णिव पवरु __णं पुलइ3 महि-महिलाहि तणु अवलोयवि तरु साहा-रवग्गु। घत्ता- पुच्छइ सविज्ज सह सा कहइ भो सुंदर णरणाह सुणु। किण्णहहो पियाए आणंदारु पउरसर्दु मायंद- वणु।। 191।। गाहा– णाऊण मणसि"गणं मणहरदेहं पि मुए तुरिएण। सहमति बिकाऊ - गपंग कर च ।। छ।। मणसिउ मायंग-रूक करेवि मायामर मक्कडु करे धरेवि । उज्जाणहो अहिमुहुँ गयउ केम्म कइ-जीवहो जमणं दूर जेम । जं पई वणवइ महो 'तलिय देहु । साहामउ छुह-वेविरु वि एहु। जगे णिदिउ-णिग्घिणु तणु करेवि संकल-णिवद्ध कह करे धरेवि । जोयहि वाणरु सुणिवद्ध गलो दिज्जउ एयह: साहार-फलो। वणरक्खइ ता कुविएण वुतु मा” णियहि पाव वच्चहि णिरुत्तु । कारण्ड (चक्रवाक) के लिए घर के समान तथा फलों के भार से झुके हुए अनेक प्रकार के वृक्ष थे, (श्रीसमृद्धि में वह इतना समृद्ध था कि मानों) पाताल लोक का नृप श्रेष्ठ ही हो। वहाँ वृक्षों की रमणीक शाखा—प्रशाखाएँ देखकर ऐसा लगता था मानों वे पृथिवी रूपी महिला के तन के पुलक.- रोमांच ही हों। पत्ता-. उस रमर (प्रद्युम्न) ने अपनी (प्रज्ञप्ति—) विद्या से उस वन का नाम पूछा तो उसने उत्तर में कहा.--- "हे सुन्दर, हे नरनाथ, सुनो, कृष्ण की प्रियतमा (सत्यभामा) का यह प्रचुर रसवाले आम-फलों का आनन्दकारी माकन्दी वन है। ।। 191।। मातंग (प्रद्युम्न) के मायामय वानर ने माकन्द वन में तोड़-फोड़ मचा दी गाथा--- मनसिज ने (उसे सत्यभाना का माकन्द-वन) समझकर अपनी मनोहर देह को तुरन्त छोड़कर शीघ्र ही मायासे मातंग (चण्डाल) का रूप धारण कर लिया ! ।। छ।। वह मनसिज मातंग का रूप धारण कर एक मायामय वानर हाथ में पकड़कर उस उद्यान के सम्मुख गया। कैसे! जैसे विनाश शील जीव के लिए मानों वह यमदूत ही हो। जगत् में निन्दित घृणित शरीर बनाकर तथा सॉकल से बँधे हुए उस वानर को हाथ में पकड़कर वह मातंग (वनपति से) बोला—"हे धनपति, मेरी देह थकी हुई है। साथ ही यह बन्दर भी क्षुधा से कॉप रहा है। इस बँधे गले वाले (भूखे) वातर की ओर देखो और इसे खाने के लिए फल दे दो।” वनरक्षक के झिड़कने और रोकने पर पुन: उस मातंग (प्रद्युम्न) ने कुपित होकर उस (4) 1. अ 'य। शिरूपनीवस्य । (4) (1) अ कागेन्। (2) अ चाडालरूप। (3) (4) अ. प्रति। (5) अ. अवलोक्य ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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