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________________ 204] महाकद सिंह विरहाउ पण्णचरिज TIL.2.|| गय सयल वणयरेहि किर जामहि वणहो उच्चभंगि किय तामहि । घत्ता-. जह-जह सुपथंड णं जम-दंड पइसरंति हवेवि हिरु । तह-तह मरु-हयहिं कंपइ वणु भय वेविरु ।। 190 ।। गाहा– सरसं पि अच्छवंतं सुपय समासं सुभासवंतम्मि। विहयं तुरएहि वणं पिसुणेहिव सुकइ-कय-कल्वं । । छ ।। सीयल सुसच्छ सोसिय बरंभ पोक्खर" ("सर थिय णं छिद्द कुंभ । णिरु वहल कुसुम-रय महमहंत चूरिय तरुवर-वेल्ली हरंत। उठिय निहंग गयणयले लम्ग वणयर रसंत चउदिसिहि भग्ग । सुद्धउ अवणीयलु ठियउ तहिं वणचिण्हु ण मुणियां केण कहिं। गउ तं परसु परिहरिधि र कुसुमराह कसु-कोदंड : भुवणत्तय माणिणि-मणहरणु । वर विज्जुज्जलु' णं जलधरणु"। णिय लीलए पहि पच्चंतएण मयणेण विसुद्ध सइत्तणेण। 10 कण-इल्ल)-कोच-कारंड1) हरु फल भर पणविय बहु भेय तरु । वनचर चले गये तभी उस वन को उन्होंने नष्ट कर दिया। पत्ता-... जैसे-जैसे यमदण्ड के समान वह प्रद्युम्न उस वन में निर्भीक होकर घूमता रहा तैसे-तैसे उन दिव्यमयी घोड़ों से बन भयभीत होकर काँपता रहा।। 190।। कुमार प्रद्युम्न सत्यभामा का उपवन नष्ट कर, दूसरों के लिए वर्जित उसके माकन्दी बन में पहुँचता है गाथा- दुग्ध के समान शुभ्र एवं स्वच्छ जल से परिपूर्ण सुन्दर सरोबर वाला वह वन उन तुरंगों द्वारा उसी प्रकार नष्ट कर दिया गया, जिस प्रकार दुर्जनों द्वारा सुकविकृत (सुन्दर-) काव्य ।। छ ।। उन दिव्य घोड़ों ने शीतल स्वच्छ एवं श्रेष्ठ जल वाली पुष्करिणी-सरोवर को सुखा दिया। वह ऐसा प्रतीत होता था, मानों छिद्र वाला घट ही वहाँ स्थित हो। कुसुम-रज से महकते हुए उत्तम-उत्तम वृक्षों एवं वल्ली-वितानों को उन्होंने नष्ट कर दिया, पक्षी उड़-उड़ कर आकाश में चले गये, वनचर (श्वापद) गण चिल्लाते हुए चारों दिशाओं में भाग खड़े हुए। उस वन की भूमि ऐसी साफ-वनस्पति शून्य हो गई कि वहाँ वन का कोई चिह्न भी था, ऐसा कोई नहीं जान सकता था। ____ वह कुसुमशर—कामदेव (प्रद्युम्न) इक्षु का कोदण्ड (धनुष) हाथ में धारण किये हुए उस सरोवर को छोड़कर उत्साहपर्वक अपनी लीलाओं से मार्ग में सभी को प्रभावित करता हुआ उस प्रदेश में जा पहुंचा जहाँ भुवनत्रिक में माननियों के मन का हरण करने वाले विद्युत विद्या से उज्ज्वल मेघों के समान तथा शुक, सारस, क्रौंच एवं (3) 1. अ. वाइ। 2. अम। (3) (1) पुनरिणी । (2) सरोवर । (3) हरिणदय । (4) अ. विद्याविद्युत् । (5) नेघ । (6) अ. सोत्साहेन: ( णुक ! (8) सारस । (9) आम्रवन । 1103 बकवाक।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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