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________________ 11.2.10] महाफ मिह चिराइज पज्जपणचौरस 1203 घशा.--- गउवाणहो समीउ विमणमहणु सहसा कवडु करेविणु। मायामय हमवर पवर दिढ-रज्जु वहि धरेविणु ।। 189।। (2) गाहा--. इसिझण भुवण-विजइ जंपइ वग'गल णिसुणि महो वयणं । एवं चिय बे वि हया लिहंतु तिणं दप-पएसम्गि।। छ।। तं णिसुणेवि वणवणा अक्खिउ भो अण्णाण पहियणा लक्खिउ । एउ उववणु हरि-पियहि-पियारउ भुवणभंतरम्मि णिरु सारउ। जासु वरेण पयट्टहिं सुरवर तहिं जपहि तुहं चारमि हयवर । मा कि चहि माउन्भउ अच्छहि णियय तुरंग लेवि लहु गच्छति । विसम-सरेण बुत्तु आयामह भणमि कि जर तुम्हहँ म । चिक्कमंत अणु-दिणु पहि रीणा सुसिय-देह पय-खाण बिहीणा। अंगुलीउ अणु वसु इय भासिवि दिण्णु सरेण सयल संतोसिवेि । हरि जइ पत्तु फुल्लु-फलु भक्खिर मा कुप्पहु अम्होवरि अक्खिउ । पभहिं वणवालय किं अक्खहि णायवेलि कि कर हय भक्खहि । 10 पत्ता- मायामय उन घोड़ों को दृढ़ रज्जु से बाँधकर उन्हें पकड़े हुए वह मन्मथ प्रद्युम्न सहसा ही छल-कपट करके उस वन के समीप गया ।। [89।। (2) रिश्वत में अंगूठी लेकर वनपाल ने प्रद्युम्न के घोड़ों को सत्यभामा का उपवन चरा दिया गाथा- हँसकर भुवन का जयी वह काम बोला—"हे वनपाल. मेरे बचन सुनो। ये दोनों ही घोड़े इस वन प्रदेश में तृण का स्वाद लेना चाहते हैं।" ।। छ।। यह सुनकर वनपति ने कहा- हे पथिक, तुम अज्ञानी प्रतीत होते हो। (क्या तुम नहीं जानते हो कि.-) संसार में सारभूत यह उपवन उस हरिप्रिया—सत्यभामा का प्रिय वन है. जिसकी आज्ञा में (निरन्तर) देवगण रहा करते हैं?" (यह सुनकर मदन ने पुन: निवेदन किया कि-) "जहाँ तुम कहो वहीं मैं अपने घोड़ों को चरा लूँ।" यह कहकर जब मदन रुक गया तभी वह वनपाल बोला— नहीं, क्या कह रहा है? अपने घोडे ले और शीघ्र ही यहाँ से चलता बन ।' तब विषमशर—पंचबाण काम ने कहा- "सुनो, यदि तुभ मानों तो मैं कुछ कहता हूँ"घोड़े मार्ग में चलते-चलते रात-दिन रीने-झीने हो गये हैं (उदास जैो हो गये हैं), इनकी देह सूख गयी है, और खान-पान से रहित हैं अत: अन्य (धोड़ों) के वश होकर ही यह अंगूठी (दता हूं)।" ऐसा कहकर उस स्मर ने उन सबको सन्तष्ट कर वह अंगठी (चपके से) उसे दे दी। घोड़ों ने जब पत्ते फल एवं फल खा डाले. तब वनपाल से मदन (प्रद्युम्न) ने कहा—ोध क्यों करते हो "क्या कह रहे हो? नागवल्लि घोड़े क्यों खायेंगे?" जब सभी
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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