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महाकइ सिंह विखउ पज्जुण्णचरित
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एयादहमी संधी
धुवक— मलेवि माणु रविकण्णहो सरु हरि-पुरिहि पईसरइ ।
भीसम-सुयाहे णं सोख-पिहि दुहु अणंतु सच्चहि करइ ।। छ।। गाहा.- थोवंतरम्मि पहि जंताएट कलयंठि-कलरव रवण्णं ।
पिच्छेइ वणं वर विडवि पउर पत्तेहिं संछपण" ।। छ।। अमराहिव उववण सरिसु वणु अवलोयवि विभिउ रइरमणु सुरविडवि मानवी रव
जय बजल- इ-छाणु। चंपय-कयंव-साहाललंतु
णव-किसलय पवणाहय-चलंतु । वियसिय कंजय-रय महमहंतु गंधद्ध भमिय महु गुमुगुमंतु । सुर-णर-विसहर-किण्णरहँ पुज्ज पुंछिप कुमार पण्णत्ति विज्ज। वणु एहु पवरु कहि तणउ भणु आयण्णिवि सा तहो कहइ पुणु । खेयर-सुवाहि सुकुमालिपाहे वणु एहु सच्चणामालियाहे । णिसुणेविणु ता मयरद्धएण
हरि बेवि करेवि णिविसिद्धरण।
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ग्यारहवीं सन्धि
प्रज्ञप्ति-विद्या का चमत्कार..प्रद्युम्न मायामय दो घोड़ों के साथ सत्यभामा के उपवन के समीप पहुँचता है ध्रुवक- हरिनन्दन-भानुकर्ण का मानमर्दन कर उस स्मर (कामदेव-प्रद्युम्न) ने हरि पुरि ( द्वारामती) में
प्रवेश क्या किया मानों वह भीष्मसुता—रूपिणी के लिए सुखनिधि एवं सत्यभामा के लिए अनन्त दुख
प्रदान करने के लिए ही वहाँ पहुँचा हो।। छ।। गाथा— मार्ग में थोड़ी दूरी चलकर कोकिलों के मधुर शब्दों से रम्य प्रचुर पत्रों से आच्छादित सघन वृक्षों वाला
उत्तम वन देखा।। छ।। इन्द्र के उपवन ( नन्दन वन) के समान उस वन को देखकर वह रतिरमण (—प्रद्युम्न) विस्मित हुआ, जो (वन) कल्पवृक्ष—पारिजात, रम्य नागवल्ली, अनेक तिलक, वकुल एवं न्यग्रोध वृक्षों से आच्छादित, पवनाहत होने के कारण चलायमान, नव किसलयों वाली चम्पक एवं कदम्ब वृक्षों की चपल शाखाओं से सुशोभित, विकसित कमलों की पराग की गन्ध से महकते हुए पुष्प सुगन्धि के लोभी भ्रमरों से गुंजायमान था। सुर, नर एवं विषधर (नागेन्द्र) किन्नरों द्वारा पूज्य उस कुमार ने अपनी प्रज्ञप्ति विद्या से पूछा—“ग्रह वन प्रवर किसका है? कहो"। यह सुनकर वह विद्या पुन: बोली-..." यह वन सत्यभामा नामकी सुकुमारी खेचर पुत्री का है।" यह सुनकर उस मकरध्वज ने आधे निमिष में ही दो घोड़े तैयार किये और
(1) (1) आच्छादितं । [2) कल्पवृक्ष ।