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________________ 200] महाकइ सिष्ठ विरइज पन्जुण्णचरिउ [10.20.8 तो धाइवि अवर चयारि मिलिय विहलंघल तणु ते विइलहिं घुलिय । पुणु अ-सोल-बत्तीस तेम भज्जहिं कं वीरहो करडि जेम । 10 बत्तीसहो णउ उठिउ अहंगु चितवइ माणु सिरि-मउड भंगु। घत्ता- एतडइ तित्ति णउ मणिसियहो माणभंगु तहिं कियउ जहिं। __सुरगिरि समु णिच्चलु होवि थिउ सइँ कुमार उठवहि 'मई ।। 187 ।। (21) आरणालं- ता कंचुइ पउनयं हो णिरुत्तयं भुव सुव हुव राया। सुणि सच्चहे तणु 'रुया सिरिहर-सुया भुवणे कुमर राया ।। छ।। णिय-दीहर-दिद-पीवर-करेहि वहु णर-भर-भार-धुरा-धरेहिं । उद्धरेवि तुरय आरोवि म वाहमि तुरंगु रंजेमि पइँ। इय आयषिणवि सो कुमर जाम उट्ठवइ पहउ चलणेण ताम । सिरि-सेहरु मणिमउ दल मलेवि वियडुण्णय उरे णिय पउ ठवेवि। लहु चडिवि पवाहइ मयरकेउ पुलणंग-चलण सम-विसम एउ। मिल कर दौड़े किन्तु वे भी व्याकुल शरीर वाले विफल हो गये। पुनः आठ, सोलह एवं बत्तीस सेवक मिले। वे भी वैसे व्याकुल हो भागने लगे। किस प्रकार जैसे वीर (सिंह) से डरकर हाथी भागता है। वह बूढ़ा बत्तीसों सेवकों से नहीं उठा। वह अभंग ही रहा। तब उस कुमार भानु के सिर का मुकुट भंग हुआ, वह मन में चिन्तित हो उठा। पत्ता- इस प्रकार कुमार भानु का इतना मान भंग कर देने पर भी जब उस मनसिज–प्रद्युम्न के मन में सन्तोष नहीं हुआ, तब पुनः वह सुरगिरि के समान निश्चल होकर स्थित हो गया और अपने में कहा "अब कुमार स्वयं ही मुझे उठा कर देखें । । 187 ।। (21) अश्वपाल भानुकर्ण को लतया कर घोड़े पर बैठकर आकाश में उड़ जाता है आरणाल- तब कंचुकी (अश्वपाल) ने उस भानु से कहा कि "तुम निरुत्तर क्यों हो? तुम तो पृथिवी के राजा बनने वाले हो, हे सत्यभामा के पुत्र, हे हरिसुत, हे भुवन के राजकुमार, सुनो– ।। छ।। दीर्घ दृढ़ एवं स्थूल तथा अनेक मनुष्यों के भार की धुरा के धारक अपने इन हाथों से उठाकर मुझे शीघ्र इस तुरंग पर चढ़ा दो, जिससे मैं तुरंग की सवारी करूँ और तुम्हें रंजायमान करूँ। यह सुनकर जब वह कुमार उसे उठाने लगा तथा वृद्ध ने उसे लात मारी और सिर के मणिमय मुकुट को दलमल (चूर-चूर) कर डाला | पुनः उसके विकट उन्नत वक्षस्थल पर अपना पैर रखकर अत्यन्त विषम वह मकरकेतु (वृद्ध) पुलकित अंग एव सम चरण हो कर शीघ्र ही तुरंग पर चढ़कर उसे दौड़ाने लगा और वह कुमार भी "सुन्दर-सुन्दर" कहकर (20) 1. अ "ज। (21) 1. ब भु: 2.4 मु। 3. अ ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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