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10.20.7]
महाकर सिंह विरराज पज्जुण्णचरिड
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हरिणंदणु मावि चव्द फारु इय जं घमाणु पौडेवुत्त) मारु। कि कर णिरच्छ उवहसहिं मइँ इउ अच्दु ण मुणियउं कहिमि प।ि
हय-वाहन हय हुँतउ पडइ सूरों दि मरइ जो रणे भिडइ। घत्ता- परिसु वि किंपि जइ वसइ मणे थेर तुरिउ तो आवहि।
तई तुरिउ विलग्गहि अत्ति तुहुँ णियय गुणु वि दरिसावहि ।। 186 ।।
(20)
आरणालं- तं णिसुणेवि उराउ अजुत्त नियं शुमारा।
___ हरिकुल-कमल-दिणयरा-पवर-सुहयरा णिसुरण भुवणे सारा।। छ ।। महि मुअवि गमइ गयणयले जइवि) णिरु दुइमु तुरिउ दमेमि तइवि । सयमेउ धरहु जण विण्णि जई सहसत्ति चडावहि चडमि तई। इय रहमि मज्झु थरहरइ वउ हय-विहिणा किं हउँ थेरुकउ। आयपिणावि तं असिवर करेहि हरि-तणुरुहासु विहि किंकरेहि। उठविउ ण उइ थेरु केम गिद्दइवह लद्भु णिहाण जेम।
करके ही हयवर पर सवारी करना।" उस वृद्ध ने उसे हरि का नन्दन मानकर बहुत समझाया और तभी समझाते हुए उस वृद्ध (मदन–प्रद्युम्न) से वह बोला—"क्यों कर मुझ पर व्यर्थ हँसते हो। मेरी यह स्थिति अक्षुण्ण है, ऐसा आपने कैसे जान लिया? हयवाहक भी घोड़ा से गिर पड़ता है और जो रण में भिड़ता है, वह शूर भी मर जाता है। अत:घत्ता- “हे बुड्ढे यदि तेरे मन में कुछ भी पौरुष समाया हुआ हो तो तुरन्त आ। घोड़ा लेकर शीघ्र चढ़ और
अपने गुण (चतुराई) को दिखा ।। 186।।
(20) अश्वपाल जर्जर देह होने के कारण सेवकों के साथ भानु से घोड़े पर बैठा देने का आग्रह करता है, किन्तु
उस देवी-शरीर को वे उठा नहीं सके । आरणाल- यह सुनकर वह बुड्ढा (प्रद्युम्न) बोला .-"कुमार ने अयुक्त नहीं कहा। प्रवर सुखकर, भुवन में
सार, हरिकुलरूपी कमलों के लिए सूर्य सुनो।। छ।। यद्यपि मैं उस तुरंग का दमन करता हूँ तो भी वह अत्यन्त दुर्दमनीय है। मही छोड़कर वह आकाश में चला जाता है। स्वयं ही इसको पकड़ो। यदि दो जनों के साथ आप मुझे सहसा ही इस पर चढ़ा दो तो मैं चढ़ जाऊँ। यह मैं हूँ। मेरी काय अधिक आयु के कारण थरहरा रही है। दैवमारे ने मुझे बुड्ढा क्यों कर दिया?
उसके वचन सुनकर हरिपुत्र के, हाथों में तलवार धारण किये हुए सेवकों ने उसे तत्काल उठाया, किन्तु वह बुड्ढा किसी भी प्रकार नहीं उठ सका, मानों निधान पाकर वह सो गया हो। तब और भी चार अन्य सेवक
(10) (3) प्रचुर। (4) कामप्रति । (20) (1) दि आकाशं गछति । (2) दमितो भवति।