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________________ 198] महाकड निह विराज पन्जण्णचरिज [10.18.10 10 ता तेण पयंपिउ बलिवि एम एत्तिउ हिरण्णु हउ लहई केम । पुणु पभणद हयवइ सुणि कुमार मामि ग किंपि हउँ भुवणसार । आरहेवि तुरंगम वाहि मज्मु जाणमि हउँ असवारत्तु तुज्झु । घत्ता . इय वयणु सुणवि सच्चाहि सुउ झत्ति तुरंगही उवरि विलग्गउ । तावण मेल्लमि थेर सुणि जावण संधि-असंधिहिं भग्गउ।। 185 ।। (19) आरणालं– दिढ-'रज्जुएण वालए वाग-चालए कुमर किर सइत्तो"। पुणु वहियाले वाहए थिरु सुसाहाए मुणइँ तुरउ जित्तो।। छ।। हयवर इमि ताम तुरंतएण सम-चरण-फाल-मेल्लतएण। परिभमेवि भमेवि महिवीटे चित्तु दुक्कम्मइँ ण जीउ विणिहित्तु । खल-वयणहिं णं सज्जणहो चितु तह भाणु जीउ संदेह पत्तु । कंचुइणा उवहसियउ कुमारु तुव सरिसु णत्थि कु वि आसवारु। जा-जाहि णियय-मंदिरहो वच्छ हइवरू वाहि वय-निरुव दन्छ। कीमत) के बदले में इतना हिर1 --सिन्को नयों नौ ?" पुन: ६यास देला—"हे कुमार सुनो। यह घोड़ा भुवन में श्रेष्ठ माना जाता है। अत: मैं तो इसकी कीमत कुछ भी नहीं माँग रहा हूँ। अपनी अश्वशाला से निर्दोष मेरे तुरंगम पर सवारी करो, तभी मैं तुम्हें (पक्का) असवार समदूंगा।" घत्ता- वृद्ध अश्वपाल का कथन सुनकर सत्यभामा का वह पुत्र भानुकर्ण झपट्टे के साथ उस तुरंगम पर चढ गया और बोला—"बुड्ढे सुन ले मेरी बात, मैं इस घोड़े को तब तक नहीं छोडूंगा, जब तक कि इसके अंग-प्रत्यंगों के जोड़-जोड़ भान न हो जायँ ।। 185।। (19) भानुकर्ण को वह तुरंग पटक देता है तब वह लज्जित होकर स्वयं उसे उस पर सवार होने की चुनौती देता है आरणाल-... वह कुमार भानुकर्ण आश्चर्यचकित होकर सावधानी से दृढ़ रज्जु से उसे घुमाकर उसे लगाम लगाकर चलाता है और फिर उसे अश्वशाला में ले जाता है। वहाँ उस सवारी को साधकर स्थिर (शान्त) कर देता है और (इसी से) समझने लगता है कि उसने उस तुरंग को जीत (वश में कर) लिया है।। छ।। जब वह कुमार उस पर सवार होकर चला तब वह तुरंगम तुरन्त ही अपने पैरों को तीव्रतापूर्वक एक साथ फेंकता हुआ दौड़ा और पृथिवी पर घुमा-घुमा कर उसे धरती पर दे पटका मानों कोई जीव दुष्कर्मो से मारा गया हो। खल के वचनों से सज्जन का चित्त जिस प्रकार हो जाता है, उसी प्रकार भानु का जीव भी सन्देह को प्राप्त हुआ। (यह देखकर) उस कंचुकी (हयपति) ने कुमार भानुकर्ण की हँसी उड़ाई और कहा कि—"तुम्हारे समान कोई भी असवार नहीं है। हे वत्स, जाओ-जाओ, अब अपने घर जाओ, आयु पूर्ण कर तथा दक्षता प्राप्त (18) (3) पटिर। (19) 1. ब रज्जेण। हात्तचित्रं । ॥ जितोगनाति ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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