SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 10.18.91 5 पुणु पुरउ परिट्ठिउ साहणासु रंगत तुरंगम वाहणासु । घता — पैछेवि विज्जाहर सुवइँ दीहर-भुवइँ हउ हयवरहँ पहाणउँ । भणु पवणु व वेयइँ हरिमण तेयइँ तुंगम मेरु समाणउँ ।। 184 ।। (18) आउछिउ कुमारेण वर-वारेणं णियवि गिरुव चोज्जं । किं विक्किणहिं हयवरो णयण - दिहियरो कहसु थेर कज्जं । । छ । । सास 'मुअंतु विठु दीहु । जाणिज्जइ लोयहं णिरवसेसु । आ वह देसु अक्कमेवि । णिरु निद्दं-तिसाए - छुहाए, खीणु । ५७ अछमि हउँ आइयउ तं जि । जं मग्गहि तं तुह दवि णु देमि । मह तुरिउ दिणारहो कोडि देहि । आरणालं. महाकइ सिंह विरइज एज्जुष्णचरिउ आहासइ थेरु खलंत-जीहु (1) भो- कुमर णिसुणि इह जमण देसु तहिं हुंत तुरिउ तुरंगु लेकि अइ दीहर-पंथ समेण रीणु हुँ हरिसु रूमवर ले जि ता चवइ भाणु भणु किं करेमि पभणिउ तं हरि-मंदिरहु(2) णेहि पर बैठकर रेंगता हुआ उस ( सौतेले भाई) के सम्मुख आया । घत्ता --. दीर्घ- भुजा वाले विद्याधर - पुत्र ( प्रद्युम्न ) के मन, पवन एवं हरि के मन से भी तेज गति वाले तथा सुमेरु के समान उत्तुंग श्रेष्ठ अश्वों में प्रधान उस अश्व को देख कर वह भानुकर्ण हतप्रभ रह गया। 184 ।। (17) 2 ब भु" । (18) 1. य. सु । 2. अ । 3. अप्रत्थु । [197 (18) अहंकारी भानुकर्ण वृद्ध अश्वपाल (प्रद्युम्न) का तुरंग लेकर उस पर सवार हो जाता है। आरणाल. तब उस श्रेष्ठ असवार ( घुड़सवार ) भानुकर्ण ने अत्यन्त आश्चर्यकारी नेत्रों को आनन्ददायक उस अश्ववर को देखकर उस वृद्ध ( प्रद्युम्न ) अश्वपाल से पूछा - "हे स्थविर क्या इस तुरंग को बेचोगे? इस तुरंग कार्य (गुण) बताओ।" ।। छ । । तब लड़खड़ाती जीभ से उस स्थविर – वृद्ध ( प्रद्युम्न ) ने दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए उत्तर दिया-- “भो कुमार, सुनो। जो सम्पूर्ण लोकों द्वारा जाना हुआ है, ऐसा इस संसार में एक यवन देश है। वहीं से इस तुरंग को लेकर अनेक देशों को लाँघता हुआ तुरन्त ही यहाँ आया हूँ । अति दीर्घपथ के श्रम से यह खिन्न तथा निद्रा, तृषा एवं क्षुधा से अत्यन्त क्षीण है । आप हरि पुत्र हो, आप यह घोड़ा ले लो। यही मैं कहता हूँ। इसलिए मैं यहाँ आया हूँ।" यह सुनकर उस भानु ने पूछा - " कहो, मैं क्या करूँ? जो मांगो सो उतना द्रव्य में दे देता हूँ ।" तब उस वृद्ध अश्वपाल ने उत्तर दिया — "तुम इसे हरि मन्दिर (कृष्ण भवन) की अश्वशाला में लेकर रख लो तथा ( उसकी कीमत के रूप में) मुझे एक करोड़ दीनारें दे दो ।" तब उस भानु ने घुमा फिरा कर उससे कहा- "घोड़े (की (18) (1) सीण । (2) अश्वसालायां ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy