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________________ 196] 5 एरिसप्पए पुरिहि अहि मुहउ किर जाम छत्तेर्हिच्छ एवं दस ताम । धत्ता- हिलि-हिलि-हिलि हिंसंत हय चंचल-मण-पवणागम) I पेक्खड़ अपंगु अइ-पउर वर जे संगाम महाखम | 1 183 | 1 (17) चउपासेहिं सारया) आसवारया नियइ णिरु सुतेया फर- करवाल- हत्थया जे समस्थया किंकरा अणेया । । छ । । आरणालं खि पेच्छेवि सच्चहे सुउ रइवरेण भणु कवणु एहु कहिं संचलिउ ता चवइ विज्ज आयपिण देव किण्णु मुणहि एहु पहु भाणुकण्णु आयण्णिवि वयणु णि' रुद्धएण किम एयहो दुट्हो माणु मलमि हवाल ( ) – उ सहसत्ति लेखि - कंपंतु - सीसु सजलोत्त-णयणु 10 के सम्मुख पहुँचा, तब उसने छत्रों से ढँका आकाश देखा । घसा पण्णत्तिय पुछिय आयरेण । किं कज्जइँ हय - साहणु मिलिउ । पर णरवर विंदहिं विहिय सेव । णिय-जणणि-सदत्तिह्ने तणउ 2 " सेण्णु | चिंतिउ सचिते मयरद्धएण । कुमरहो जि मज्झे सु पयाउ खलमि । विज्जामउ-उ-("बग्गहिं धरेवि । सव्वंग-सिढिलु-- दंतुरिय- वयणु । (16) 3. भुट सु (17)। अ. वि [ 10.16.11 वहाँ उस अनंग ने संग्राम में अत्यन्त समर्थ मन एवं पवन के समान तीव्र वेगगति वाले अनेक घोड़ों को देखा जो हिलि -हिलि-हिलि कर हींस रहे थे। 1834 1 (17) प्रज्ञप्ति-विद्या का चमत्कार — • कुमार प्रद्युम्न वृद्ध अश्वपाल के रूप में अपने सौतेले भाई भानुकर्ण के सम्मुख पहुँचता है आरणाल— (आगे चलकर उसने वहाँ ) सारभूत, अत्यन्त तीव्र बेगगामी असवार ( घुड़सवार) को, जो कि चारों ओर स्फुरायमान तलवारों को हाथों में लिये समर्थ अंगरक्षक सेवकों द्वारा घिरा हुआ था, देखा । । छ । । रतिवर प्रद्युम्न ने उस (उक्त) सत्यभामा के पुत्र को देखकर आदरपूर्वक अपनी प्रज्ञप्ति - विद्या से तीन प्रश्न पूछे - " कहो यह कौन है? कहाँ चला है? और किस कार्य से इसे यह घुड़सवारी मिली है?" तब विद्या बोली" शत्रु राजाओं द्वारा सेवित हे देव, आप सुनिए । हे प्रभु, यह भानुकर्ण है, क्या आप इसे नहीं जानते? आपकी माता के सौत का यह सूनु (पुत्र) है।" रुके हुए मकरध्वज ने यह सुनकर अपने चित्त में विचार किया— “क्या इस दुष्ट का मान मर्दन कर डालूँ? अथवा सभी के बीच (सामने) इस कुमार के प्रताप को नष्ट कर डालूँ? इस प्रकार विचार कर उसने शीघ्र ही वृद्ध अश्वपाल का रूप बनाकर विद्यामय घोड़े की बाग (लगाम) पकड़ कर काँपते हुए माथे से आँसुओं से गीले नेत्रों द्वारा सर्वाग शिथिल तन एवं दन्तुर मुख वह (प्रद्युम्न ) अपने तुरंग (16)(ति । (17) (1) सारभूत (2) (3) अश्रू (4) घोटकु ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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