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10.16.101
मताकह सिंत विराज पन्जुण्णचरित
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धत्ता- आहासइ मुणि 'मयरद्धयहो णिसुणि सुहड-भड-थड-कय-मद्दण | पइँ जहिं जाएव्वउ वच्छ णिरुएह सा एयरि चउन्भुवणाणंदण ।। 182 ।।
(16) आरणालं- तं णिसुणेवि अणंगेणं भुवणचंगेणं पुणु वि एम वुत्तं ।
जं-जं जासु मंदिरं सुरमणंदिरं कहहि तह णिस्त्तं ।। छ।। अक्खेइ देवरिसि मयणस्स ता एम आणि भो तणय हउँ कहमि जं जेम। रत्रयराहिवो विण्हु गेहे तुज्झ पियरस्स वर चक्क-गय-संख-सारंग धारस्म । कमलासणा-वसइ वच्छत्थले 'जस्स णिरु अद्ध-चस्केस सासणेण जुत्तस्स। सीहद्धयं-मंदिरं दीसए जं जि
सीराउहायस्स-आवासयं तंजि । मेसद्धयं-रहए जस्स मंदिरहो तं तुव पियामहहो अइ-दिव्व सुंदरहो। विज्जाहरालंकियं केउयं जच्छ जाणिज्जए सच्चहामाहरं तच्छ। कलसद्धयं गेहयं जपए सम्मि रेहतयं णियय-मायाहे सुणि तम्मि। ता सरेण णहजाणु थंभेवि णहे धरिउ अप्पुण्णु बि सहसति महिबीढे अवयरिउ।
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घत्ता
मकरध्वज के वचन सुन कर मुनि नारद बोले—"शत्रुओं के भट-समूह का मर्दन करने वाले हे सुभट-वत्स, सुनो। जहाँ तुम्हें पहुंचना था, चारों भुवनों को आनन्दित करने वाली यही वह (द्वारामती) नगरी है।"1। 182 ||
(16) नारद एवं उदधिकुमारी युक्त विमान को नभ में ही स्थिर कर वह प्रद्युम्न अकेला ही उतर कर द्वारावती
__घूमने निकलता है आरणाल... उसको सुनकर भुवन में सुन्दर स्वस्थ उस अनंग (प्रद्युम्न) ने इस प्रकार निवेदन किया-"देवों के
मन को आनन्दित करने वाले जो-जो जिस-जिसके भवन यहाँ बने हुए हैं, उनका शीघ्र ही मुझे
परिचय दीजिए।" | 1 छ।। तब देवर्षि नारद ने उस मदन से इस प्रकार कहा...- "हे पुत्र, में जैसा कहता हूँ, उसे सुनो, ये भवन तुम्हारे उत्तम चक्र, गदा, शंख एवं धनुषधारी पिता खगाधिप विष्णु के हैं, जो कि अर्ध चक्र के शासन से युक्त हैं तथा जिसके वक्षस्थल पर लक्ष्मी का निवास है। जो यह सिंह ध्वजा वाला भवन दिखाई दे रहा है, वह सीरायुध बलदेव का आवास है। मेष की ध्वजा जहाँ जिस मन्दिर पर चमक रही है, अति दिव्य सुन्दर वह आवास तुम्हारे पितामह का है। विद्याधरों से अलंकृत ध्वजा जहाँ है वह सत्यभामा का घर जाना जाता है और सुनो, कलश की ध्वजा वाला जो चमकता हुआ भवन है उसे अपनी माता का घर जानो।" तब उस स्मर (प्रद्युम्न) ने अपना नभयान रोककर आकाश में ही खड़ा कर दिया और सहसा ही वह स्वयं अकेला महीपीठ पर उतरा। जब वह नीचे पुरी
(16) I. ब. “स। 2.