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10.14.15]
महाड सिंह विरइत पज्जण्णारित
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भणिउ मोब्भउ मा भेसावहि सुंदरि णियय-रूउ दरिसावहि । ता अप्पड पयडियउ सव्वंगु वि कि वणिज्जइ अवसु अणंगु वि। सोलह-आहरणालंकरिया
णं ससि गिय-कलाहिं लंकरियउ। गं सुरु णं सुरवरु णं किण्णरु णं उविंदु) 162) णं णव-दिणयर | णं सोहाग णिवहु रूवहो पिहि अक्लोथं तियाहे तहे हुव दिहि । इय अउव्व भावेण णियंतइ परियट्टइँ गयणयले तुरंतइ। ता पुरि दिढ़-दिच्च दारामइ 'जहिं जयवर दिण्णी-दारामइ । जा पर-णरवर गण-दारामइ जहिं वसंति पर णिय दारामई । जहिं णिय-पुरिसोवरि दारामई जहिं चउ-पासहिं फल दारामइ । जहिं जइ-वरणिज्जिय दारामइ जहिं जिणहर इव चउ दारामइ।
रेहइ जा उद्दामारामइ (दारावइ?) (तिल्लोयह मज्झ अपुव्व दारामइ)। घत्ता-- तहिं चउ पासहिं संठियउ उज्जलु जलणिहि सह इव केहउ।
__णं पुरवरिहे पुरंधियहे णिवसण-वत्थ णिरारिउ जेहउ ।। 181 ।।
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पुनः मदन से कहा- "हे मदन, इस सुन्दरी कन्या को डराओ मत, 'इसे अपना यथार्थ रूप दिखा दो।" तब उस कुमार ने अपने सर्वांग का ऐसा सुन्दर रूप प्रकट किया कि उस अवश (स्वतन्त्र) अनंग (प्रद्युम्न) का क्या वर्णन किया जाय? अपने रूप को षोड़श आभरणों से अलंकृत कर लिया, मानों चन्द्रमा ने अपनी समस्त कलाओं से ही उसे अलंकृत कर दिया हो। वह ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों देव हो, अथवा इन्द्र हो, अथवा किन्नर हो अथवा विष्णु हो अथवा श्रेष्ठ नव-सूर्य हो अथवा मानों सौभाग्य का समूह हो अथवा मानों रूप की निधि हो, ऐसे रूप को देखती हुई उस राजपुत्री को धैर्य हुआ। इस प्रकार अपूर्व भावों से देखती हुई वह गगनतल में (उसके साथ) तुरन्त चल दी। तभी उन्होंने दिव्य द्वारामती नामकी नगरी देखी, जो जगत के लिए प्रधान प्रवेश द्वार के समान है तथा जो पुरी शत्रु-मनुष्य वर्गों के द्वार को रोकने वाली है. (अर्थात् शत्रु-गण को नाश करने वाली है) जहाँ मनुष्य निजदारा से सन्तुष्ट रहते हैं, जहाँ निज पुरुषों के ऊपर ही दाराओं की मति है (अर्थात् स्त्रियाँ पतिव्रता है), जो नगरी चारों ओर फल-वृक्ष वाली है। जहाँ यतियों द्वारा स्त्रियों के प्रति अपनी लालसा को निर्जित किया जाता है। जो चतुर्मुखी जिन-भवन के समान ही चतुर्मुखी चार द्वार वाली है। जो पुरी उत्कृष्ट बगीचों से सुशोभित हैं। ऐसी तीन लोक में प्रधान अपूर्व द्वारावती पुरी है। पत्ता- वहाँ चारों ओर उज्ज्वल, समुद्र के फेन की तरह एक परकोट स्थित है। मानों निश्चय ही पुरी रूपी
पुरन्ध्री के पहिनने का वस्त्र ही हो।। 181।।
(14) 12.
प्रति में यह चरण नहीं है।
(14) (1) विष्णु । (2) प्रघातु।