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10.13.21
महाका सिंह विराज पज्जुण्णचरित
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कि कलयतु पुलिंद भड़ विंदइ जगु बहिरिउ घणुहर गुण णट् । जे भिडमाण सुहडु ते भंजिय हय-गय-रह-साहण बहु गंजिय। भय भंगालयम्मि तहि अवसर क १५:। र ..मणे वेसारे। ता महि-मंडलम्मि रायहो सुब पडिय पवर भालइ माला भुव । पेक्वेविणु सवरण अहंगई
पिय अवहरेवि तुरिउ णह-मग्गई। हा-हा ताय-ताय जंपतिय
वणयर रूव भयई कंपतिय।। हा लक्खण अग्यण्णि सहोयर दूसासण सुणि रिउ जम गोउर। हा-मद्देय सुकुण्ण विउव्वल हा-रवि-सुव कलसह सउव्वल ।
मइ मेल्लिवि किम गमणु करेसहु किं रायहो णियमुहु दरिसेसहु । घत्ता- जइ छलु-कुलु-वलु पउरिसु वि वसइ चित्ते सहुँ खत्तई। तो सयल शहाहिन मिलिवि लहु मइँ रक्खेहु पयत्त' ।। 179 ।।
(13) आरणालं- अइ कलुणु रुवंतिया राय-पुत्तिया खणु वि मणे ण थक्का ।
पुणु-पुणु मुच्छि जतिया णीसासंतिया ""मुणिहे पुरउ मुक्का।। छ।। पुलिन्द-भट वृन्दों ने कोलाहल किया, जिससे जगत् बधिर हो गया। धनुर्धरों की गुण (डोरी-ज्या) नाचने लगी। जो सुभट भिड़ रहे थे, उन्हें पुलिन्दों ने भाँज दिया तथा उनके हय, गज, रथ जैसे साधनों को गाँज दिया (ढेर बना दिया)। भय से भंग स्थान में उसी समय खच्चरों के कल-कल शब्द से वे सभी भट मन में डर गये। तभी महीमण्डल में उस राजपुत्री के प्रवर भाल से माला भूमि पर गिर पड़ी। शबर ने उसे अभंग देखकर स्वयं उसका अपहरण किया और तुरन्त ही आकाश-मार्ग से चला गया। वह राजपुत्री उस वनचर भील के रूप से काँप रही थी और “हा तात. हा तात, हा लक्ष्मण, हे सहोदर भाई, शत्रुओं के लिए यम के द्वार के समान दुःशासन. हा माद्रेय, हा विपुल बल सुकर्ण, हा रविपुत्र कल-कल शब्दों से बतधारी सुनो-सुनो।" इस प्रकार कह कर चिल्ला रही थी तथा कह रही थी कि-"मुझे छोड़कर कहाँ गमन कर रहे हो? राजा को अपना कैसे मुख दिखाओगे।" पत्ता- “यदि क्षत्रियपने के साथ-साथ चित्त में छल, बल, कुलीनता एवं पौरुष है, तो हे समस्त विद्याधर नृप
आप सभी मिलकर प्रयत्नपूर्वक शीघ्र ही मेरी रक्षा करें।" ।। 179 ।।
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उदधिकुमारी शील-भंग के भय से महर्षि नारद से अपनी सुरक्षा की मौंग करती हुई
उम्र तप की प्रतिज्ञा करती है आरणाल— अति करुण स्वर से रोती हुई वह राजपुत्री एक क्षण को भी मन में नहीं रुकी। पुनः मूर्छित हो
गयी और निश्वास लेती हुई मुनि के सम्मुख पड़ गयी।। छ।।
(13) | नरहस्य।