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मा पेल्ल
हउँ हरिणंदणु जंप बणयरु आरूसेविणु चल्लिय जामहिँ भो-मइ एक्कु महु सएणि जि वसहिं इह दुद्धर एम चवेवि धणु अग्गर देविणु जह-जह वलु अहिमुहु परिसक्कइ एतहिं समरण कत्थइँ माइम तहो सारिच्छ मिलिय समरगणे तामण्णु णियमणि परितउ
महाकर सिंह विरड पज्जुणचार
छत्ता - कोदि गयइ कोवि तह हय-वरइँ कोवि रहइँ- संचूरिउ ।
आरणालं
कुरवलाय हे तणउं धरमि करु । समरु - विलक्खु चवई तहिं तामहिं । मण्णा अण्णा बोल्लहु ।
जे संगाम महाभर दुद्धर । I णिय भासइ किक्कारु करेविणु । तह-तह धणु वतु ण थक्कइ । करि तिकडु-ध सरिस पराइय । पेक्ख णारउ ठिउ रायणंगणे । अप्पंपरि हुबउ चउदिसि णट्ठउ ।
कवि वहइँ कोवि करहएण एस सुहडु गणु हियइ-विसूरिउ ।। 178 ।।
(11) 2. 13:
(12) 1. म. द
आरणाल— उस समय कुरुसेना के धैर्य के साथ हाथों में
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इय एहम्मि कालए णिरु भयालए आहवे समत्था ।
पsि - पहरति वीर या पवर धीरया गहि धणुहँ हत्था । । छ । ।
तब वनचर बोला---"मैं हरि का पुत्र हूँ। मैं कुरुपति की पुत्री के हाथ को पकहूँगा।" रूसकर जब वे भट चले, तब समर में विचक्षण शबर उनसे बोला -- "भो, मुझे अकेला कहकर मत दबाओ ! मेरे न्याय को अन्याय मत कहो । मेरे साथ सौ दुस्तर वीर यहाँ रहते हैं, जो संग्राम के महाभार में दुद्वर हैं।" ऐसा कहकर अपने धनुष को आगे देकर तथा उस पर टनकार मारकर बोला- “जैसे-जैसे सेना आगे खिसकती है; वैसे-वैसे धनुष बाणों को आगे बढ़ाने (छोड़ने) में भी वह नहीं थकता । इसी बीच में वहाँ इतना घमासान समर छिड गया कि वहाँ वह समाया नहीं । धनुषाकार होकर हाथों में धनुष धारण कर टूट पड़े। जब समान शक्ति वाले समर भूमि में जा मिले तभी गगनांगन में स्थित नारद ने देख लिया। वह सेना अपने मन में डर गयी और अपने परायों पर गिरते पड़ते हुए वे चारों दिशाओं में रफूचक्कर हो गये ।
घत्ता— कोई गजों से चूरा गया, कोई हयवरों से चूरा गया और कोई रथों से चूरा गया। कोई बैलों से चूरा गया, कोई ऊँटों से चूरा गया। इस प्रकार वे शत्रु सुभट - गण हृदय में बिसूरने लगे ।। 178 ।।
(10.11.6
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शबर द्वारा उदधिकुमारी का अपहरण
सभी भट भयाकुल एवं आहत हो चुके थे। फिर भी उन वीरों ने प्रचुर धनुष लेकर प्रत्युत्तर में पुनः प्रहार किया । । छ । ।