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________________ 188] महाकइ सिंह दिरड पज्जुष्णरिज [10.96 10 कठिण पाणि-धूतुद्ध” कंधरु पोटु पय मोटु वि दुद्धर । गुंजाहल-मालहिं किउ भूसणु विविहा वक्कल-वत्थ-णियंसणु। करें तिहकंड' धणुरुहु संजोयवि घिउ सेण्णगई उन्भउ होयवि। ता णरवर कुमर' विहसंतहि भणिउ पुलिंदुवहासु करतहि । भो-सुंदर कि अहिमुहु ढुक्कहि किं किस्जद अग्गइँ तुहु थक्कहि । पत्ता- पडिक्यणु पयंपइ भडयणहो सभर असंकिउ णियमणे।। हउं वट्ट बहोवमि जणवयहो रत्ति-दिवसु थिउ एह वणे ।। 176 ।। (10) आरणालं- पुणु वि पुलिंद जंपिणं किंपि कंपए णियइ धउल चित्तो। हउमि सुठाण वालउ अडइ-पालउ सुणहु मणि णिरत्तो।। छ।। किण्हो आएतें हउँ इहि अच्छमि वणि वणियारउ पहिउ' पि यच्छमि । अणु-दिणु एहु मरगु परिवाहमि रायाएसें सुक्कुग्गाहमि । मुहि एण विणउ गमणु करिज्जइ जं अहिलसमि किंपि तं दिज्जइ । ता चवंति भड पहरण-धारा अम्हइ उ वणे उववणियारा। न्थूल उन्नत कन्धे थे. पेट बड़ा और पैर मोटे थे, दुर्द्धर था। गुंजाफल की माला का आभूषण धारण किये था और विविध वल्कलों के वस्त्र कभर में बाँधे था। वह अपने हाथ में धनुषबाण सँजोकर सेना के आगे उठकर खड़ा हो गया। तब मुस्कराते हुए उस नरवर दुर्योधन के कुमारों ने पुलिंद (शबर) का उपहास किया और कहा"भो सुन्दर, क्यों सन्मुख ढूंकते हो? आगे तुम खड़े हो गये हो अब तुम्हारा) क्या किया जाये?" घत्ता... अपने मन में समर से आशंकित उस शबर (प्रद्युम्न) ने भट जनों से प्रत्युतर में कहा—“मैं रात-दिन इस वन में रहता हूँ और लोगों के लिए मार्ग दिखाता हूँ।। 176।। शाबर वेश-धारी प्रद्युम्न कुरुसेना से शुल्क के रूप में राजकुमारी उदधिकुमारी को माँगता है आरणाल– चपलचित्त उस पुलिन्द (प्रद्युम्न) ते (रोष के कारण) कुछ काँपते हुए देखा और कहा—सावधान होकर सुनो, मैं इस स्थान के अटवी-पालक का बालक हूँ।। छ।।। ".- कृष्ण के आदेश से मैं यहाँ रहता हूँ और वन में वनचारी पथिकों का निरीक्षण करता हूँ। प्रतिदिन मैं इस मार्ग को सम्भालता हूँ और राजा के आदेश से शुल्क उगाहता हूँ। मैं जो कुछ चाहता हूँ वह मुझे दे दीजिये, फिर मुझे नमस्कार करके ही आगे गमन करिये।" तब शस्त्रधारी वे भट बोले-"हम लोग इस वन में वनबारे-. .व्यापारी के रूप में नहीं आये हैं। फिर भी हे वनचर-पति, आपने जो हरिनाम प्रकट किया है, वह (2) (3) उत्कट। (9) 1.9 विक्रमः 2. अ. गिव । ३. ब. "च। (1) I. ब मुः। 2. . हि ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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