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10.9.51
महाकइ सिंह विरइउ पाजुपणचरिउ
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पुणु भासइ सुंव काइँ पलावइ हउँ ण मुणमि कि मित्था गाव' । ता सुहडहं धुत्ताहण धुत्त ि किउ विमाणु थिरु रुविणि पुत्त। चल्लाविउ चिक्कमइँ णणारइँ खिल्लिउ जलहरु णं अंगार। मुणि जंपइ सुणि विरहिउ सामई) अस्थि राउ दुज्जोहणु णामइ । तहो पुणु धूव उवहि उप्पण्णी
सा पुणु आसि तणय तुह दिण्णी। एमहि सच्चहि सुउ परिणेसइ तुह जणणिहिं बहु परिहउ देसइ ।(4) घत्ता- इय णिसुणेवि मणोब्भवेण गयणंगणे विमाणु थंभेविणु।
अप्पुणु महिहि समोयरिउि भीसणु सवरहो रूउ धरेविणु।। 175।।
आरणालं- करे कोवंडु कंडयं किय पयंडयं जयसिरि णिवासं ।
रूवं अइ भयाणणं णं जमाणणं गहेवि भड-विणास ।। छ।। तणु णव-जलहर छवि सारिच्छउ झंपड कविल-केस दुप्पेच्छउ । पोमराय-मणि सपिणह णयाउँ छिब्बर-णास दंतर वयणउँ ।
वेल्लीवलय-विहूसिय वरसिरु शिरि भित्तिहिं समाणु सोहइ उरु। क्या मैं मिथ्या गुणगान करूँ? तब सुभटों के धूर्त एवं सुभटों को मारने में भी धूर्त (—कुशल) उस रूपिणी पुत्र ने अपना विमान स्थिर किया (रोका)। पुनः प्रत्युत्पन्नमति वाले प्रद्युम्न ने (सहसा ही) उस विमान को पुन: तीव्र गति से चला दिया। यह देखकर नारद क्रोधित हो उठे, मानों अंगारे ही मेघ के रूप में बरसने लगे हो। मुनि बोले-.-"उपशान्त कषाय बालों के स्वामी हे प्रद्युम्न, तुम सुनो— "दुर्योधन नामका एक राजा है। उसकी उदधिकुमारी नामकी पुत्री उत्पन्न हुई। हे पुत्र, पूर्व में वह तुम्हें दी जाने वाली थी। अब उसे सत्यभामा का पुत्र परणेगा, जो तुम्हारी माता के लिए बहुत परिभव देगा (अर्थात् पराजय एवं तिरस्कार का कारण बनेगा)। घत्ता- यह सुनकर वह कामदेव गगन रूपी आँगन में अपना विमान खड़ाकर भीषण शबर (भील) का रूप
धर कर चुपचाप पृथिवी पर उतरा।। 175।।
विकराल शबर वेश-धारी प्रद्युम्न कुरु सेना को रोक लेता है आरणाल.— भटों का विनाश करने वाले तथा विजयलक्ष्मी के निवास उस प्रद्युम्न ने प्रचण्ड धनुष बाण को हाथ
___ में लेकर यमराज के समान ही अपना भयानक रूप एवं मुख धारण किया।। छ।। उस (भीत) के शरीर की छवि काले नवीन मेघ के समान थी। झबरे कपिल केश थे, जो दुष्प्रेक्ष्य (न देखे जायें ऐसे) थे। पद्मरागमणि समान लाल-लाल नेत्र थे, छिवरी.—चिपटी नाक तथा मुख में निकले हुए बड़े-बड़े दाँत थे। लता-वलय से विभूषित सिर था, पर्वत की भीत के समान विशाल हृदय सुशोभित था, हाथ कठोर थे,
(४) 1. ब “स।
189 (3) उपग्मस्य । (4) दास्यते । (9) (1) दीप्ति। (2) हृदय।