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महाकई सिंह विरइउ पज्जुण्णचरिउ
110.7.7
कहिंपि सिविय-जाणिया
सुरिंद-जाण माणिया। कहिँपि विट्ठ करहया
अरोह किसिण-करहया। कहिंपि आयवत्तया
णिरुद्ध दुमणि) - वत्तया। कहिँपि दिट्ठ णरवरा
पणासियारि१) णरवरा कहिंपि दिठ्ठ वेसरा
किउद्ध कंध-केसरा। कहिं रसंत-तूरयं
णिएवि भुवण पूरयं। धत्ता- इय कुरुणाहहो-सेणु धयदंडवल उभेवि करु ।
तूर-रवेण जंपेद् भो-भो' कुमार आरासर।। 174।।
आरणालं... अवलोएवि साहणं किय पसाहणं कुसमसरु सचित्तो।
पुणु भुवर्णाम्म सारउ जग-पियारउ सुरमुणि पउत्तो।। छ।। भो-भो ताय गुज्झु मा रक्खहि एहु कहो तपउ सेण्णु महो अक्खहि। हरि-सुउ परिपुंछइ सय वारउ वार-बार अवगण्णइ पारउ। मणसिउ-पुंछमाणु णउ थक्कइ रिसि णिय) - वयणु) णिवा रिउ वंकइ ।
के समान थीं। कहीं पर ऊँट देखे जो प्ररोहों को अपने कृष्ण करों से (ग्रीवा) से नष्ट कर रहे थे। कहीं पर छत्र थे, जो धुमणि (सूर्य) के तेज को रोक रहे थे। कहीं पर नरवरों को देखा जो शत्रु नरवरों को नष्ट करने वाले थे। कहीं खच्चर देखे जो प्रशस्त स्कन्धों के केशर (बाल) वाले थे। कहीं बाजे बज रहे थे, जो भवन को पूर रहे थे। प्रद्युम्न ने उसे चलते हुए देखा। घत्ता- इस प्रकार कुरुनाथ की सेना चपल ध्वज दण्डों को हाथ में खड़ा कर तूर-बाजे के शब्दों से मानों
पुकार-पुकार कर कह रही थी कि "भो कुमार समीप आओ।" ।। 174।।
कुरुनाथ दुर्योधन की सेना माता रूपिणी के पराभव का कारण बनेगी, यह जानकर प्रद्युम्न आकाश में ही
विमान रोककर शाबर के रूप में धरती पर उतरता है आरणाल— सुसज्जित साधनों को देखकर सुन्दर चित्तवाला भुवन में साररूप, जगत को प्यारा वह कुसुमशर –
प्रद्युम्न सुर मुनि – नारद से बोता ।। छ।। "हे हे तात, गुप्त मत रखिए, यह किसकी सेना है मुझसे कहिए। हरिसुत प्रद्युम्न ने सैकड़ों बार पूछा किन्तु नारद ने बार-बार उसकी अवहेलना की। मनसिज–काम, पूछते-पूछते जब नहीं थका (रुका) तब ऋषि ने अपने वचन से उस बाँके (चतुर-वक्र) को रोका और बताया "हे पुत्र, क्या प्रलाप कर रहे हो? मैं नहीं जानता।
(7) 6. 3.|
(7) (3) सूर्यप्रभा । (4) शुमानासिहापैः (5) आग्छ । (8) (1) नरड. । (२) निलनुस ।
(8) 1.4. भा। 2. अ. रा।