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________________ 10.5.91 महाकद सिंह विराउ पशुष्णचरिउ [183 घत्ता. मणे मुणिवि विलक्खउ देव-रिसि किउ विमाणु थिरु रूविणि तणय । संचल्लइ गयणंगणेण संभासिवि बहारइ पणय।। 171 ।। (5) आरणालं.. दुट्ठाराइ मद्दणो कण्ह-णंदणो) गमइ (मणे पहिलो । : .५य महीइरे, सुंग सेहरो सम'इ तेण दिलो ।। छ।। पलोइआ महीहरो) - महीहरेण भमंतया करेणु जह दिद करेण। सावय-कुलाउलो वि सादयेण रवि-मणीहिं ताविओ परस्स तावएण। विहंगएहिं सेविउ अहंगएण रय-पय स्स भूसिउ अणंगएण । दिव्व-वस संभवोवि) दिव्ब-बंस संभवेण वरं भएण जुत्तउ मणुब्भवेण । मयारि-विंद वंतउ०) वि मयर विंध जुत्तएए वियसियारविंद अरविंद सरिसणेत्तएण। ससी-मणीहि सोहिउ ससी सुर्विव वत्तएण णहग्ग-लग्ग सेहरो णहंगणे सरत्तए । सुर-पुरंधि मणहरो पुरंधिएहिं मणहरेण विडवि कुसुमालंकिउ कुसुममगाणा करेण । घत्ता- देवऋषि की विकलावस्था को मन में समझकर उस रूपिणी-तनय-प्रद्युम्न ने अपना विमान स्थिर किया और स्नेह बढ़ाने वाला सम्भाषण कर वह नभ-मार्ग से आगे बढ़ा।। 171 ।। (5) कुमार प्रद्युम्न ने नभ-मार्ग में जाते हुए रौप्याचल को देखा आरणाल— दुष्ट आरातियों का मर्दन करने वाले कृष्ण का वह नन्दन–प्रद्युम्न मन में प्रसन्न होता हुआ चला जा रहा था, उसने शीघ्र ही उत्तुंग शिखर वाला श्रेष्ठ रौप्याचल सम्यक् प्रकार से देखा।। छ।। महीधर (राजा) ने महीधर (पर्वत) को उसी प्रकार देखा, जिस प्रकार भ्रमण करता हुआ हस्तिनी-समूह गजराज द्वारा देखा जाता है। श्रावक (ग्रहस्थ मदन) द्वारा श्वापदों (सिंह, भालू, व्याघ्र आदि) से व्याकुल, पर (शत्रु) को सन्ताप देने वाले मदन द्वारा सूर्यकान्ति मणियों से तापित वह पर्वत देखा गया। अभंग (अलंध्यमदन) द्वारा विहंगमों से सेवित वह पर्वत देखा गया। अनंग (काम) द्वारा रजत से भूषित वह रजताचल (विजयार्ध – वैताढ्य) पर्वत देखा गया। दिव्य वंश में उत्पन्न मदन के द्वारा दिव्य (अद्भुत) बाँसों की उत्पत्ति वाला वह पर्वत देखा गया। मनुद्भव (-काम) के द्वारा रम्भा (कदली वृक्ष) सहित वह पर्वत देखा गया। मृगवेध (सिंहासन) से युक्त मदन ने सिंह समूह वाला वह पर्वत देखा। अरविन्द (कमल) सदृश नेत्र वाले मदन ने विकसित अरविन्द (युक्त सरोवर) वाला वह पर्वत देखा । चन्द्रबिम्ब समान मुख वाले मदन ने चन्द्रकान्त मणियों से शोभित वह पर्वत देखा। नभ रूपी आँगन में जाते हुए मदन के द्वारा नभ के अग्र-भाग में लगे शेखरवाला (उन्नत शिखर युक्त) वह पर्वत देखा। उस मदनगृह – प्रद्युम्न ने सुर-पुरन्धियों के मन को हरण करने वाले तथा पुरन्धियों से युक्त उस पर्वत को देखा। कुसुम चापधारी उस प्रद्युम्न के द्वारा विटप-पुष्पों से अलंकृत वह पर्वत देखा गया । (5) I. अ ताम: 2. अ.५। 3. अ धु। 4. व x। (5) (1) प्रद्युम्नेन । (2) गच्छति । (3) वेताडि। {4) अगेन । (5) उत्पादिका । (6) संपुर।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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