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________________ 1821 मा सिंह चिरइउ पज्जृष्णचरिउ [10.4.1 आरणालं रासि-रवि-पह समाणयंता विमाणायं सहइ गयणे लग्गं ।। ण कुवल'इ भमंति" मा कित्तिमा पनिटा ।' जह-जह संकमइ णहंगणेण तह-तह रिसि संकइ णिय-मणेण । अइ विभिउ जा चिंतंतु थिउ दूरंतरे ताम विमाणु णिउ। रइरमण णियउ विमाणु जाम णारय-रिसि रोसइँ चवइ ताम। भा तणय मज्झु थरहरइ देहू किं दूरि परिहिउ अचलु एहु । किं मइ जंपिउ णउ मण धरेहि कि णिय-मायहिं दुहु णउ सरेहि। तं आयपिणवि दड मुणि महिहि पडतु व कहव चक्कु । जह-जह विमाणु गयणयले चडइ तह-तह णारउ थरहरइ पडइ । करि छत्तिय कडि कोवीणु घुलइ सिरि कविल जडाजूडोहु लुलइ। रिसि जंपइ उभउ करि विमाणु परिसक्कमि गज सुव पइँ समाणु। तुह पियरहँ हउँ णिरु परमपुज्जु तुहं करहि खेडु काहे कवणु कज्जु । विमान की वेगगति से नारद थरहराने लगता है, अत: प्रद्युम्न मन्द-गति से आगे बढ़ता है आरणाल- शशि-रवि की प्रभा वाला, गगन में गया हुआ, वह विमान ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों पृथिवी-मण्डल में भ्रमण करती हुई मदन की कीर्ति ने समस्त लोकों को अपने वश में कर लिया हो।। छ।। जैसे-जैसे वह विमान आकाश रूपी आँगन से खिसकता जा रहा था, वैसे-वैसे नारद ऋषि को अपने मन में शंका होने लगी। जब वे ऋषि अत्यन्त चिन्तित एवं विस्मित होकर बैठे थे, तभी उन्हें वह विमान कुछ और दूरी पर ले आया। इस प्रकार रतिरमण जब विमान को ले जा रहा था, तभी अोधपूर्वक नारद ऋषि बोले"हे पुत्र, मेरी देह काँप रही है। क्या वह विमान कुछ दूरी पर जाकर रुक तो नहीं जायगा?" मेरे वचनों को ध्यान में क्यों नहीं रखते? क्या अपनी माता के दु:खों का स्मरण नहीं कर रहे हो?" ऋषि का कथन सुनकर प्रद्युम्न ने उस विमान की गति को और भी तेज कर दिया, जिससे वे मुनिराज विमान-तल पर चक्कर खाकर गिरने-गिरने को हो गये। जैसे-जैसे विमान आकाश में ऊपर की ओर चढ़ता था, वैसे-वैसे नारद थरहराते गिरते पड़ते से बैठे थे। हवा में उनके हाथ की छत्री एवं करि की कौपीन फड़फड़ा रही थी। शिर का कपिल जटा-जूट विलुलित हो रहा था। इस स्थिति में ऋषिराज नारद बोले—“विमान खड़ा करो। मैं तुम्हारे समान शक्तिशाली नहीं हूँ पुत्र । (इतनी तेज गति वाले विमान में अब मैं नहीं बैठ सकता, कुमार, तुम जानते हो न कि) मैं तुम्हारे माता-पिता के लिए भी परम पूज्य हूँ, फिर भी तुम किस प्रयोजन से मेरे साथ ऐसा खिलवाड़ कर रहे हो?" (4) I. अ बुलेव
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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