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________________ 10.3.J1] महाफइ सिंह विरइउ पज्जण्णचारेउ [181 पत्ता- मणिमय सुधंभ कुंभियहे सहुँ उच्छल्लियहँ अलंकरिउ । णम्मरु घरंतहँ सुरवरहँ सुर-विमाणु महि अवयरियउ।। 169 ।। (3) आरणाल- जं तइलोय सारयं हियय हारयं दुमणि-पह-णिरोहं । अइ दिव्वं विचित्तयं णिरु पवित्तयं विहिय चारु सोहं।। छ।। रणझणंत किंकिणि व मलोउलं पंचवण्णहिँ धयवड़ समालाउलं। कणय-कलसेहिं दिप्पंत-दिच्चक्कयं गयण-गमणम्मि " कहिमिणउ-थक्कएँ । चंद-कतेहिं जं णिरहि कतिल्लयं पवर माणिक्क-दित्तीहि सुविचित्तयं । रहमिहागण सनेहिं पारिदिन दिव्व-वत्थाइँ उल्लोवयालंकियं । घूममा णाहि कालायर रूक्यिं वरदुवारंपि रयणेहिं उद्दीवियं । पारिजायाइँ-तरु-कुसुम-सोहालिय मल्लि-वेइल्ल-मालाहि उम्मालियें । रुणु-रुणुट्टत गंधासए-भिंगयं मेरु-सिहरस्स सरिसंपि उच्चंगयं । 10 घत्ता- इय विविह पयारई णिम्मविवि उबरि वलग्ग तुरिय जग सुंदर। णं णिय कज्जइँ अवयरिवि पुणुच्चलियइँ पडिंद-पुरंदर ।। 170 ।। धत्ता- मणिमय सुन्दर स्तम्भों तथा गज मोतियों की लड़ियों एवं छल्लों से अलंकृत विमान पृथिवी पर उतरा। वह ऐसा प्रतीत होता था मानों मर्यादा धारण करने वाले सुरवरों का देव-विमान ही भूमि में अवतरित हो।। 169 ।। (3) प्रद्युम्न अपने नव-निर्मित सुसज्जित नभोयान में बैठकर मेघकूटपुर से द्वारावती की ओर प्रस्थान करता है आरणाल--- जो विमानं तीन लोक में सारभूत है, हृदय के हार के समान धुमणि (सूर्य) के मार्ग को रोकने वाला ___ है, अति दिव्य है, विचित्र है, पूर्ण एवं पवित्र है और जो सुन्दर शोभा सम्पन्न है— रुण-झुण करती किंकिणियों तथा मालाओं से व्याप्त पंचवर्णों वाले ध्वजपटों से सुशोभित सुवर्ण कलशों से दिक्चक्र को दैदीप्यमान करने वाला, गगन-गमन में कभी नहीं थकने वाला, चन्द्रकान्तामणियों से अधिक कान्तिवाले, प्रवर माणिक्यों की दीप्ति से भी अत्यन्त दीप्तिमान, दिव्यमोतियों के झुमकों से शोभायमान, हंस एवं तोतों आदि के चित्रों से सुविचित्रित, यक्ष-मिथुनों के रूपों से परिष्कृत दिव्य-वस्त्र आदि चंदोवों से अलंकृत, धूम्र करते हुए कालागर से दीप्त, रत्नों से उद्दीप्त उत्तम द्वारवाला, पारिजात आदि वृक्षों के पुष्पों से शोभा सम्पन्न मल्लिका, वेल की मालाओं से सुशोभित, रुण-रुण करते हुए सुगन्ध के लालची बॅगों से युक्त, मेरु शिखर के समान ऊँचा। पत्ता- इस प्रकार विविध प्रकारों से गगनचुम्बी, जग सुन्दर विमान का तुरन्त ही निर्माण किया और उस पर बैठकर वह चला । वह ऐसा प्रतीत होता था मानों प्रतीन्द्र पुरन्दर अपने कार्य से विमान से वहाँ उतरा हो और पुन: उसमें बैठकर चल पड़ा हो।। 170।। (2) 1. अ. मयणाहि। (3) (1) जतू विमानं।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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