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महाकद सिंह विरन पज्जुण्णचरिड
[10.1.14
घत्ता- सहसत्ति विणिम्मिउ णारएण किंकिणी कुसुमदाम उम्मालिउ ।
दिठु निचित्तु मणि-गण-जडिउ रइ वल्ल्हेण वि झत्ति णिहालिउ।। 168 ।।
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आरणाल— पेक्विवि तं विमाण'यं पुर-समाणयं करिवि मणे पवंचं ।
णियचलणंपि पेल्लिय तेण डोल्लियं मुडिवि हुउ कुसंच ।। छ।। जंपइ कुसुमाउहु कहो सीसइ एउ विणाणु ण अण्णहो दीसइ। कहि-कहि ताय-ताय कहिं सिक्खिउ पइँ जे हउ छइल्लु | णिरिक्खिउ । ता पड़िवयणु देइ रिसि ‘णारउ जो सुर-पर-किण्णरहं पियारउ। हउँ सुव थेरु कज्ज असमत्थर किंकारणे उबह सहि णिरुत्तउ । तुहु जुवा सुविधा विवाद। मिा भागु ण विले क्वहिं । किं-कि खेड्डु करंतु ण थक्कइ । कि किजइ तुरिउ ण सक्कइ। किं तुहु अत्रमाणु' णउ लक्खहि किं णिय जणणिहिँ कज्जु उवेक्वहि । तं णिसुणिवि दिग्गयवर गमणइँ किउ विमाणु अणवमु ता मयणई।
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घत्ता..... तब नारद ने किकिणियों एवं पुष्पमालाओं से सुशोभित, देखने में विचित्र मणिगणों से जटित विमान
निर्मित कर दिया। रतिवल्लभ-प्रद्युम्न ने उसे शीघ्र ही निहारा—देखा ।। 168 ।।
नारद द्वारा निर्मित विमान प्रद्युम्न के पैर रखते ही सिकुड़ जाता है। अत: नारद के आदेश से प्रद्युम्न
दूसरा विमान तैयार करता है आरणाल— नगर के समान उस सुन्दर विमान को देखकर मन में प्रपंच कर अपने पैर उसमें रखे, उससे विमान
डोल गया (हिल गया) और मुड़कर सिकुड़ गया।। छ।। तब कुसुमायुध प्रद्युम्न (नारद से) बोला—"आपने कहाँ से सीखा है?" ऐसा विज्ञान अन्य किसी को तो नहीं दिखायी देता । हे तात, हे तात, कहो—कहो, आपने कहाँ से इसे सीखा है? मैंने तो आप जैसा छैला ..- कुशल अन्य किसी को देखा ही नहीं 1" तब देव, नर एवं किन्नरों के प्यारे उन ऋषिराज ने प्रत्युत्तर में कहा-"हे पुत्र, मैं तो अब बुड्ढय को गया हूँ, कार्य करने में असमर्थ हूँ. फिर किस कारण से तुम मेरा उपहास करते हो? तुम अभी युवा हो, सुचतुर हो, विचक्षण हो, तुम स्वयं शुभ लक्षण वाले विमान की संरचना क्यों नहीं करते? तरह-तरह की क्रीड़ाएँ करते हुए नहीं थकते तब क्या तुम इसे तुरन्त ही नहीं बना सकते हो?" क्या तुम अपने अपमान को नहीं देखते? अपनी माता के कार्य की उपेक्षा क्यों कर रहे हो?"
उसको सुनकर दिग्गजवर मदन ने अपने गमन के लिए एक अनुपम विमान की रचना की ।
(2) (1) विदाध विचक्षण | (2) अयाणपसि ।
(2) I. ब. लां। 2. रापउ। 3.7 म। 4. अ किष्णु। 5. अ.
सुहलक्खणु। 6. अ नर। 7. अ माणु। 8-9.3 इक्क मगई।