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________________ 10.1.13] 5 10 ध्रुवक आरणाल.. (1) 1. अ. - महाक सिंह विरs पज्जुण्णचरिउ दहमी संधी (1) वंधव सयण परियणहँ थिंउ परियरिउ मणुब्भउ जामहिं । पेक्खिवि तव जम- णियम - विहि चवइ महारिसि णारउ तामहिं । । छ । । ― भो भो भो कुमारया भुवणे सारया सुण सुदिण्ण चित्ता । तुम जागी पुड कर विजय जत्ता " ।। छ । । मागबंद णिय जणणिहिं दुहु असहंतएण विणविउ णमंसिवि णि मुणिराय पणवेवि कणयप्पह मायसइँ तुम्हह हउँ लालिउ - तालियउ (2) दिदि अणुवमाणिय इ थुइ करेवि गग्गर- गिरेण खम करिवि खमावि सण वग्गु पुच्छिवि सहधर दुम्मिय-मणेण मुणि पभणिउता मणसिएण एम ममणेण वि ताम तुरंतएण । आएसु देहि लहु जामिताय । पुणु चदई खमहु अवराह सयइँ । अइ- दुक्ख- दुक्ख परिपालियउ । पर अप्पु समलु मइ जाणियउ । पुणु - पुणु पणपिवेणुण्णय सिरेण । परियणु असेसु जो रणे अहंगु । संभासिवि पुणु गवणम्मणेपण(3) 1 वियरहि विमाणु लहु जामि जेम । दसवीं सन्धि (1) (द्वारावती चलने के लिए) महर्षि नारद ने तत्काल विमान का निर्माण किया ध्रुवक वह मन्मथ प्रद्युम्न जहाँ बैठा था वहाँ बन्धु बान्धवों, स्वजनों एवं परिजनों ने आकर उसे घेर लिया। उसके तप, यम, नियम आदि विधियाँ देख कर महर्षि नारद ने कहा । छ । । आरणाल - "भो भो कुमार, भुवन में सार रूप चित्त देकर सुनो। तुम्हारी माता रूपिणी का मुण्डन और मानखण्डन होने वाला है, इसलिए तुम विजय यात्रा करो । । छ । । 179 अपनी माता के दुःख को न सहते हुए, प्रद्युम्न कामदेव ने भी तुरन्त ही मुनिराज को नमस्कार कर विनती की कि "हे तात, महाराज, आदेश दीजिए कि मैं वहाँ शीघ्र ही जाऊँ।" कनकप्रभा माता को स्वयं प्रणाम कर पुनः बोला- "मेरे समस्त अपराध क्षमा कर दीजिए। तुमने मेरा लालन-पालन ताड़न किया है। अति दुःखों से मुझे पाला है। दिन-दिन सुख रूप अनुपम मुझे माना और मुझे पराये एवं अपने का समस्त ज्ञान कराया है।" इस प्रकार गद्गद् वाणी से स्तुति कर पुनः पुनः अनुनय पूर्वक माथा झुकाकर प्रणाम कर, स्वजन वर्ग को क्षमा कर, तथा क्षमा कराकर और जो रणवास में अभंग सम्पूर्ण परिजन थे, उनको और मित्रों को दुःखी मन से पूछकर गमन के मन वाले उस मनसिज- • प्रद्युम्न ने पुनः सम्भाषण कर मुनिराज (नारद) से बोला- "चलिए, विमान बनाइए, जिससे मैं शीघ्र ही जा सकूँ ।" (1) (1) राम-कुछ। (2) कुमार्गत् तारित । (3) गमनचित्तेन ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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