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________________ 178] महाकद सिंह विरइज पजुण्णचरित [9.24.8 सुहडु सयहिं थिउ जाम रक्खिउ धूमकेय असुरेण लक्खिउ। खपरायडवी हरिवि-मुक्कउ 'ता मयर तुहं तित्थु ढुक्कर। 10 तहिं णिएवि पइँ एहु चालिउ णिय घरम्मे आणेवि पालिउ । इय मुणेवि कुसुमसर धारउ दिन्व-देहु पुलइउ कुमारउ। धत्ता- गय ते णिय णयरहो सविय खयरहो हरि आसण्ण वइट्ठ कह। पउरयणं णियंतहं सिरेण गमतह णं गिरि-सिहरहँ सीहु जह ।। 167 ।। इय पज्जुण्ण कहाए पयडिय धम्मत्थ-काम-मोक्खाए बुह रल्हण सुव कइ सीह विरइयाए णारय-पज्जुण्ण मेतावय। वण्णणं णाम णवमो संधी परिसमत्तो।। संधी: 9।। छ।। पुफिया सारासार-विचार चारु धिषणं'''सुद्धीमतामग्रणी, जात: सत्कवि रत्त सर्व निदा2) वैदुष्पा सम्पादनाः येनेदं चरित प्रगल्भ मनसां शान्त: प्रमोद प्रद, प्रद्युम्नस्य कृतं कृति " कृतवतां जीयात्ससिंहो क्षितौः ।। 9।। छ ।। धूमकेतु असुर ने उसे पहचान लिया और हरकर खदिराटवी में छोड़ दिया। हे मकर, तब तू वहाँ पहुँचा और वहाँ उसे देखा, तब उसे लेकर चला और अपने घर में लाकर पाला-पोसा।" यह जानकर दिव्य देहधारी वह कुसुमशर..-कुमार पुलकित हो उठा। पत्ता- इस प्रकार विद्याधरों द्वारा सेवित (नारद, कालसंवर एवं प्रद्युम्न) अपने नगर मेघकूटपुर नगर के लिये चले । वहाँ पौरजनों ने उनकी सेवा की और सिर झुका कर नमस्कार किया। वहाँ सिंहासन पर बैठा हुआ वह कैसा प्रतीत हुआ? वैसा ही जैसा गिरि शिखर पर बैठा हुआ सिंह।। 167 ।। इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को प्रकट करने वाली बुध रल्हण के पुत्र सिंह कवि द्वारा विरचित प्रद्युम्न कथा में नारद-प्रद्युम्न मिलाग वर्णन नामकी नवमी सन्धि समाप्त हुई।। सन्धि: 9 ।। छ।। पुष्पिकाजो सारासार के विचार में सुन्दर बुद्धि वाला है, जो शुद्ध-बुद्धिमानों में अग्रणी है, जो सत्कविकुल में उत्पन्न हुआ है, जो सत्कवियों का आदर करता है, जो विविध विद्वानों की विद्वत्ता का सम्पादक है और जिसने प्रगल्भों के मन को शान्तिप्रद एवं प्रमोदकारी प्रद्युम्न के चरित सम्बन्धी इस विशिष्ट कृति की रचना की है, वह कवि-सिंह पृथिवी-मण्डल पर जयवन्त रहे। (24) 1-2. अ. तामराय। 3-4. अ.x | पुग्धिका-. [. अ. स। 2. अमा'। पुणिका (1) बुद्धि। 12) विदुभिताभाव वै दुषित उत्पादक | (3) पुण्यतन्तः र पुण्यवंत ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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