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महाकद सिंह विराउ पज्जपणचरित
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वलु थाहु बंधइ एक्कु खणु भागउ बिहडपफड सरणु मणु । पण्णत्ति पहावइ सयलु जिउ ता खगवइ करि कोदंडु किउ। तं छिपिणउ समरे विरुद्धएण हउ सारहि-रहु मयरद्धएण। असिवरु फरु वेहा विद्धएण
लइयउ खगे*ण सणद्धएण। घत्ता- किर भिडार कुगरहो पण दुवारड़ो का गिम् कुहार।
णं गिरि" हुववहहो अहि अहिंइहहो हरिहि करिंदु मयंधउ ।। !65 | 1
दुवई- विण्णिवि चम्मरयण असिवर कर विण्णिवि 'महंत जोइया ।
विपिणवि दद्ध कोह जा पहरहि जह रणे राम-रामदा ।। छ।। तहिं अवसरे जो जगि कलियारउ छत्तिय-वंसिय कमंडलधारउ। जो अमरहँ सावणे समत्थउ
कविल जड़ा-जूडहँ किय मत्यउ। जो रूवणिहिं मणोरहँ-गारउ सो संपतु महारिसि णारउ। अंतरे थाय वि तेण णिवारिय जुज्झमाण णं करि ऊसारिय ।
पुणु रइरमणु भणिउ म चिरावहि मा णिय कुले कलंकु सुव लावहि । दो", "मुझे धारण दो" कहकर, विघटकर भाग गयी। प्रद्युम्न ने अपनी प्रज्ञप्ति विद्या के प्रभाव से जब सबको जीत लिया, तब खगपति राजा ने अपने हाथ में धनुष-धारण किया ।
विरुद्ध हुए मकरध्वज मे समर में उसके उस धनुष को भी काट दिया, साथ ही सारथि सहित रथ भी नष्ट कर दिया। तब वेधने में कुशल उस खगपति ने सावधान होकर विशाल असिवर धारण किया। पत्ता- राजा कालसंवर अपने मन में कुद्ध हुआ और रण में दुर्निवार उस कुमार से उसी प्रकार जा भिड़ा जिस
प्रकार पर्वत अग्नि से, सर्प गरुड़ से और मदोन्मत्त हाथी सिंह से भिड़कर नष्ट हो जाता है।। 165 ।।
कालसवर एवं प्रद्युम्न का तुमुल युद्ध, महर्षि नारद आकर युद्ध बन्द करा देते हैं द्विपदी- फिर दोनों ही वे महान् योद्धा ( राजा कालसंवर और प्रद्युम्न कुमार) चर्मरत्न से, स्फुरायमान
असिवर से लड़ने लगे। क्रोध के आवेग में आकर जब वे दोनों एक दूसरे पर प्रहार करते थे, तब ऐसे
प्रतीत होते थे मानों राम-रावण का ही युद्ध हो रहा हो।। छ।। उसी समय जो जगत में कलि-कलह कराने वाला, क्षत्रियवंशी, कमण्डलुधारी देवों को भी शाप देने में समर्थ, मस्तक में कपिल वर्ण के जटाजूट रखाये, जो रूपिणी के मनोरथों को श्रेष्ठता प्रदान करमे वाला महर्षि नारद था, वह वहाँ आ पहुँचा। युद्ध के मध्य प्रवेश करके उसने उन लड़ते हुओं को इस प्रकार रोका, मानों लड़ते हुए हाथियों को ही हटाया हो। पुन: रतिरमण कामदेव से (नारद ने) कहा—"विलम्ब मत करो। हे सुत, अपने कुल
(229 (3) ऊर्ता । (4) गरुडस्प।
(22) 4. अ. णे। (23) 1.2. ब खयर जय मणा।