SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 9.22.8] महाकर सिंह विरहउ पज्जुण्णचरित 1175 10 तें तयणें आसंकिउ राण कमलवणुव हिम हउ विद्दाणउ जाणिवि दुच्चरितु विहुणिवि सिह कंपंतउ मण साहारिवि णिरु । घता. पुण्णक्खइ होइ परम्मुहउ घरु घरिणि सपणु" सय णिज्ज। सुहडहो सुहडत्तणु होउ छुडु काइँ करति वरायउ विज्जाउ।। 164।। (22) दुवई- सेसुध्दरिय-सेण्ण-संजुत्तउ लहु सण्णहि विणिग्गउ । णं गयवर सएहि परिवारिउ जहू गज्जंतु दिग्गउ।। छ ।। एत्तहि।) वि कालु णं कवलु लेवि थिउ साल णवोवरि दिहि देवि । खयरायविंद-बलु ताम ढुक्कु णं जलणिहि-जलु मज्जाय 'मुक्कु । हय-गय-रहवर-भड विप्फुरंतु अभिडउ हरि-तणयहो तुरंतु। पहरंतु जोह दिढ-मग्गणेहि विधणसीले जहू दुज्जणेहि। कुसुमाउहेण विद्दविउ केम सुरगिरिणा सायरि सलिलु जेम। आहय हर-गय रण उह समत्त चूरिय रह णरवर वर "समत्त । उदास हो गया, जिस प्रकार कमल-वन हिम से विदीर्ण हो जाता है। राजा ने अपना सिर धुन लिया। काँपते मन से वह बोलायत्ता- "पुण्य का क्षय होने पर घर, घरिणी, समस्त स्वजन पुत्र आदि सभी परांगमुख हो जाते हैं और सुभट का सुभटपन भी समाप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में बेचारी विद्याएँ भी क्या करेंगी?" ।। 164 ।। (22) प्रजप्ति विद्या का चमत्कार – कालर्सवर एवं प्रद्युम्न में तुमुल युद्ध द्विपदी- शेष बची हुई सेना के साथ वह राजा कालसंवर दिशाओं में गरजन करता हुआ आकाशमार्ग से इस प्रकार चला मानों गजश्रेष्ठ अपने सैकड़ों हाथियों के साथ प्रस्थान कर रहा हो।। छ।। इसी बीच में जैसे काल अपना कवल ले रहा हो, उसी प्रकार कालसंवर राजा भी नये साधन रूपी कबल पर दृष्टि देकर स्थित हुआ। विद्याधर राजवृन्दों का बल (सैन्य) इस प्रकार समर भूमि की ओर बढ़ा जिस प्रकार तूफान के समय जल अपनी मर्यादा छोड़ देता है। तुरन्त ही हय, गज, रथवर एवं भट फड़कते हुए हरिपुत्र कुमार से जा भिड़े। जिस प्रकार दुर्जन जन चुभने वाले वचनों से प्रहार करते हैं उसी प्रकार वे योद्धागण भी दृढ़ वाणों से प्रहार करने लगे। तब कुसुमायुध (प्रद्युम्न ) के द्वारा वे सभी किस प्रकार विद्रावित कर दिये गये? उसी प्रकार जिस प्रकार कि सुरगिरि द्वारा सागर-सलिल । रणरूपी समुद्र में घोड़े आहत हो गये। गज समाप्त हो गये। रथ चूर-चूर हो गये और नर वर भी समाप्त हो गये। शेष सेना ने एक क्षण भी स्थिरता नहीं रखी। "मुझे शरण (21041) सतपुत्र। (22) 41) अवस्था । (2) रणसाने । (22) 1. अ.। 2-3. अ. विचित्तु।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy