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________________ 9.20.81 महाकद मिह विराज पज्जुण्णचरिउ [173 10 कोमल विहुर पहुर भय-तट्ठ मयरद्धयहो सरणि सुपइट्ठउ । तं रई-वल्लहेण साहारिउ भज्जमाणु कह-कहव णिवारिउ । पुणु रिउ साहणे चलिउ समच्छरु मीण परिििठउ णाइ सणिच्छरु । घत्ता- दुग्घोट्ट थट रणे विद्दक्यि हय-हयवर रहबर मुसुभूरिय । तियसहिमि समत्थई वम्महेण णर-णरिद सयल वि संचूरिय ।। 162।। (20) दुवई.-- पुणरवि भिडिउ समरे मयरद्धउ पवलु पयंडु दुद्धरो। तोडइ सुहड-सिरइँ सररूह इव जह णिरु मत्त-सिंधुरो।। छ।। तको हरिस्स गंदणेण दिव्व-अत्थ-संदणेण। णियमणम्मि कुद्धएण जयसिरी सुलुद्धएण। पेसियास विज तेण णिम्मियं वलंपि(2) जेण। तेण तं 'सुसाहणंपि चूरियं सवाहणंपि। पक्खिऊण) तण्णिवेण(4) समरे सु अहो णिक्किवेण। दिव्वु धणहु करे-करेवि 'मुक्कदाण हुंकरेवि। की शरण में आकर प्रविष्ट हुआ। यह देखकर रतिवल्लभ (प्रद्युम्न) ने कहा—"भगोड़े को क्यों और कैसे मारूं? किन्तु मात्सर्यवाला वह रिपु. "साधन सहित पुनः युद्ध के लिए उसीप्रकार चल पड़ा मानों मीन राशि पर शनैश्चर ही चढ़ाई करने आ रहा हो। घत्ता- उसने दुर्दमनीय गजों के थट्ट (.-.समूह) को रण में विदीर्ण कर डाला। उत्तम घोडों को मार डाला। यह देखकर उस मन्मथ ने भी उस (विद्याधर) के समस्त साधन तथा नर-नरेन्द्रों को चूर-चूर कर दिया।। 162।। (20) अवलोकिनी-विद्या का चमत्कार—कालसंवर एवं प्रद्युम्न में भयानक युद्ध द्विपदी- पुन: समर में प्रबल-प्रचण्ड एवं दुर्धर वह कालसंवर मकरध्वज से आ भिड़ा और वह उसके सुभटों के सिरों को उसी प्रकार तोड़ने लगा, जिस प्रकार कि मत्त-सिन्धुर (गज) सरोवर में कमलों को।। छ।। तब अपने मन में क्रुद्ध जयश्री के लोभी, दिव्यास्त्र एवं स्पन्दन वाले उस हरि-नन्दन..-प्रद्युम्न ने अपनी अवलोकिनी विद्या भेजी। जिसने (अपने प्रभाव से) एक सेना निर्मित कर दी। उस (कुमार) ने अपने वाहन से उसके सभी साधनों को चूर-चूर कर दिया। राजा कालसंवर ने उसे (अपने उस साधन को नष्ट) देखकर पुनः समर में अत्यन्त निर्दय होकर, हाथ में दिव्य-धनुष धारण कर हुँकार के साथ शुक्ल बाण छोड़ा। रतिवर कुमार ने उसे डाँटकर, गर्जकर अमोघ बाण छोड़ा। कालसंवर ने उसे भी व्यर्थ कर दिया और अपनी ओर से (19) 3. अ मुक्त : 4.3 चि'। 5.3 मपरगण। (20) |..₹। 2. अ "मि। . व. 'सु। (20) (1) सुकीय अवलोकिनी विद्य 121 विधावलं निमापितग विद्या पोभिता । 3) साह । (4) जातसंवरेण। (5) भारहिन ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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