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19.18.11
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महाका सिंह विरघउ पज्जपणन्दरिउ
गायबर गराई रहवरह-
वर-गरेहिं हय-हयहि तह इय उहयसेण रण उहे भिडिया पहरति सुहडु मच्छर चड़िया। घता.. इय जाउ महा83 दुट्विसहु जो तियसिद-विंद भयकारउ । हणहिं गरिंद महाउहवि हरिताविय सुरवहु सय वारउ ।। 161 ।।
(19) दुवई— कोवि पहरंति सुहड दप्पुभड फर-करवाल हत्थया ।
केवि पर्यड जोहवर जोहहिं आहवे कय णिरत्थया ।। छ।। केणवि कहो रहु एंतु णिवारिउ । केणवि कहु करिबरु विणिवारिउ । केणवि कहो हय-वरु हउ वाणहिं आसीविस-दिसहरहिं समाण हिं। केणवि कासु छत्तु-धउ-धणुहरु केणवि कहो सण्णाहु ससेहरु । इय संगामु परोप्परु बट्टइ सुहडहँ चित्तें जयासण फिटइ। ता खयरें सहु सेण्णु पढुक्कउ जलहि-जलुव मज्जाय विमुक्कउ । पत्तिउ तणे वलेण सवाहणु भागु परम्मुहुँ मणसिय साहणु।
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से रथ, नरों से नरश्रेष्ठ उसी प्रकार अपनों से अश्व । इस प्रकार बहाँ रण में दोनों सेनाएँ जा भिड़ीं। मात्सर्य से रंगे हुए सुभट एक-दूसरे पर प्रहार करने लगे। घत्ता- इस प्रकार वहाँ ऐसा विषम सैन्य संहार हुआ कि जो देवगणों को भी भयकारक हो गया। नरेन्द्र (प्रद्युम्न) ने महान् आयुधों से मार की, जिसने सुरवधुओं को सैकड़ों बार हर्षित किया ।। 161 ।।
(19) प्रद्युम्न की सैन्यकारिणी विद्या का चमत्कार राजा कालसंवर एवं प्रद्युम्न में तुमुल-युद्ध द्विपदी- कोई दर्पोद्धत सुभट हाथों में स्फुरायमान करवाल से प्रहार करता था तो कोई प्रचण्ड योद्धा अन्य श्रेष्ठ
योद्धा के आक्रमण को निरर्थक कर रहा था।। छ।। कोई किसी के आते हुए रथ को रोक रहा था, तो कोई किसी के करिवर को रोक रहा था। कोई किसी के श्रेष्ठ घोड़े को आशीजिष सर्प-विष के समान भयंकर बाणों से घायल कर रहा था, तो कोई किसी धनुर्धारी के छत्र एवं ध्वजा का अपहरण कर रहा था और किसी के मुकुट को ही उड़ा दे रहा था। इस प्रकार जब परस्पर में युद्ध हो रहा था और सुभटों के चित्त में जब विजय की आशा न रही तब विद्याधर कालसंवर अपनी सेना के साथ सभी मर्यादाएँ छोड़कर उसी प्रकार आगे बढ़ा जिस प्रकार तूफान के समय समुद्र अपनी मर्यादा छोड़कर आगे बढ़ जाता है। जब उसने वाहन सहित अपने बल को पेल दिया तब मनसिज (प्रद्युम्न) के साधन ने उसके उस बल को भंग कर पराजित कर दिया। कोमल विधुर (कुमार) के प्रहार के भय से त्रस्त राजा मकरध्वज कुमार
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मा। 2.4.हि।