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________________ 9.18.101 महाक सिंह विरहाउ फजुण्णचरित 1171 ता एक्कु कुमरु कह-कहब इक्कु णिविसठ्इ रायहो पासे हुक्कु । यत्ता- जंपइ सो खलियक्वहिं कंपइ पुणु साहारइ। अजउदेव सो कुमरु रणे पइंमि" वहंतु कवणु किर वारइ।। 160 ।। (18) दुवई— जे अभिट्ट सयलंतुव तणुरुह ते सहसत्ति रुद्धया। भीसण णाय-'वास दिव्वत्थइँ तक्खणे समरे वद्धया।। छ।। ता कविउ खगेमरू राण गंड तो गच्छइँ पाल मि दज्जदंडु। रणतूरु दिग्णु कलयलु करेवि संचलिउ सयलु सेण्णु वि मिलेवि । कत्थई मयगल-मय णिज्झरंत णं जंगम 'गिरिवर पज्झरंत । कल्थइँ चलंत चलवल-तुरंग ण चवल महोअहि वर तरंग। कत्थई रहवर चिक्कति विसम कलहोय विणिम्मिय मेरु सुसम । णह जायहि णह छाइउ सयलु इय संचल्लिउ खगराय-वलु । जले-थले-पहि-दिसिहि ण माइयउ हरि-तणयह उवरे पधाइयउ। 10 पेक्खिवि रिउ साहणु अइपवलु णिम्मिउ मायामउ तेण वल। खिसक गया और निमिषार्ध में ही राजा कालसंबर के पास जा हुँका (जा पहुँचा)। पत्ता- उस विद्या की करतूत से हारा हुआ वह कॉपने लगा और लड़खड़ाती वाणी में बोला-... "हे देव, रण में वह कुमार (प्रद्युम्न) अजेय है। उसका वध करते समय निश्चय ही कोई (हमें) रोकता है।"। 1 160।। (18) कालसंवर एवं प्रद्युम्न का युद्ध द्विपदी— हे देव, जब तुम्हारे सभी पुत्र उस कुमार प्रद्युम्न से जा भिड़े, तभी सहसा ही उन्हें रोक दिया गया तथा समर-काल में तत्काल ही नाग-पाश जैसे भीषणा दिव्यास्त्र से बाँध दिया गया।। छ।। यह सुनकर रण-प्रचण्ड खगेश्वर (कालसंवर) कुपित हो उठा और चिल्ला उठा--. " (अब जाकर उस प्रद्युम्न के) माथे पर मैं वज्रदण्ड पटकता हूँ।” (यह कह कर) उसने रणतुर बजवाया और कलकल कर चला। उसकी समस्त सेना भी मिलकर चली। कहीं तो हाथियों का मद बह रहा था. मानों बीहड़ पर्वतों से निर्झर ही प्रवाहित हो रहा हो। कहीं चंचल, प्रबल तुरंग चल रहे थे, मानों महोदधि की चचंल तरंगें ही चल रही हों । कहीं उत्तम रथ, चिक-चिक की विषम चिंघाड़ कर रहे थे। हाथियों के समूह मानों सामानान्तर मेरु पर्वत ही बना रहे थे। नभ-यानों से समस्त नभो-मण्डल आच्छादित था। इस प्रकार खगराज की वह सेना चली। जल-थल एवं नभ तथा दिशाओं विदिशाओं में वह समा नहीं पा रही थी। वह हरितनय—प्रद्युम्न के ऊपर बुरी तरह झपटी। अति-प्रबल रिपु-साधनों को देखकर उस प्रद्युम्न ने भी मायामयी सेना निर्मित की। गजों से गज श्रेष्ठ, रथ श्रेष्ठों (17) (|भरपम्। (171 5. अ णिपमह. (18) | अ । 2. '। 3. अ. महि।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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