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प्रस्तावना
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इस प्रकार की कथानक-रूढ़ियाँ अनंश क ५उमरिउ, महापुराण, णायकुमारचरिउ, करकण्डुचरिउ, जसहरचरिउ, जम्सामिचरिउ. भविसयतकहा एवं पण्णचरिउ में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं। यहाँ पर यह ध्यातव्य है कि मध्यकालीन हिन्दी-जैन-साहित्य में कुछ ऐसी कथानक-रूढ़ियाँ भी हैं. जो उसकी अपनी निजी सम्पत्ति है और जो मध्यकालीन जैनेतर-हिन्दी-साहित्य में नहीं मिलती। यथा
(1) श्रेणिक के प्रश्न पर गौतम के उत्तर के माध्यम से कथा का आरम्भ । (2) किसी उपवन में ज्ञानी मुनि का आगमन और उनके प्रभाव से वनस्पति आदि का अकाल में
ही विशिष्ट रूप से फलना-फूलना तथा ऋतु का परिवर्तित रूप में दिखाई देना। (3) मुनिराज द्वारा भवान्तर कथन । (4) उपदेश प्रसंगों में स्याद्वाद, अनेकान्त, पाद्रव्य, श्रावकाचार, मुनि-आचार, सप्त-तत्व आदि का
निरूपण। (5) विद्याधर, अतुर अथवा चारण-मुनियों का दर्शन इस प्रकार अपभ्रंश-काव्य परम्पराओं एवं कथानक- रूढ़ियों का मध्यकालीन हिन्दी साहित्य की परम्पराओं एवं कथा-रूढ़ियों के साथ तुलनात्मक अध्ययन करते हुए डॉ. प्रो० जगन्नाथ राय शर्मा का यह कथन अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध होता है.-"हिन्दी का कौन कवि है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में अपभ्रंश के जैन प्रबन्ध-काव्यों से प्रभावित न हुआ हो? चन्द से लेकर हरिश्चन्द्र तक तो उसके ऋण-भार से दबे हैं ही, आजकल की नई-नई काव्य-पद्धतियों के उद्भावक भी विचार कर देखने पर उसकी परिधि के बाहर न मिलेंगे।। 13. फज्जुण्णचरिउ :
(1) स्रोत, परम्परा एवं विकास:—भारतीय पुराण-साहित्य को दो परम्पराओं में विभक्त किया जा सकता है—वैदिक-पुराण एवं श्रमण-पुराण। वैदिक परम्परानुसार पुराण वे कहलाते हैं, जिनमें सृष्टि की रचना, प्रलय एवं पुन:सृष्टि, मानव-अंश, मनुओं के विविध-युग तथा राजवशों के चरितों की चर्चा की जाती है।
श्रमण-परम्परा में जैन एवं बौद्ध-परम्परायें आती हैं। बौद्ध-परम्परा का पुराण-साहित्य सीमित है और उसमें जातक-साहित्य को रखा जाता है, जिस में महाभारत सम्बन्धी कथा-साहित्य अनुपलब्ध है। __जैन-पुराणों के अनुसार सृष्टि जड़ एवं चेतनमय तथा अनादि-अनन्त है और उसका विकास अथवा परिवर्तन काल-चक्र के आरोह-अवरोह के अनुसार चलता है। अत: सर्ग एवं प्रतिसर्ग के स्थान पर उनमें विश्व का अनादि-अनन्त स्वरूप तथा उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी रूप परिवर्तन, विपरिवर्तन अथवा लोक-व्यवस्था की चर्चा रहती है। मानव-वंशों, कुलकरों अर्थात् मनुओं एवं राजदंशानुचरितों के वर्णन जैन-पुराणों में भी अपनी मान्यातानुसार उल्लिखित हैं।
पुराण-विषय से सम्बन्ध रखने वाले प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, तमिल, कन्नड़, हिन्दी आदि के अनेक जैन ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनमें से अभी तक कुछ तः प्रकाश में आ चुके हैं और कुछ प्राच्य-शास्त्र-भाण्डारों में वेष्ठनों में ही सुरक्षित हैं। प्रस्तुत पज्जुण्णचरिउ भी अद्यावधि अप्रकाशित ही था, जिसका सर्वप्रथम सम्पादन, अनुवाद एवं समीक्षात्मक अध्ययन यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
1. देः अपभ्रंश वर्गग: (पटना. 1955). 10 53