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________________ 164) खंडय 5 10 महाकर सिंह विरइ पज्जुण्णचरिउ (11) तहि गणणी सुपसिद्धिया तव गुण- णियम समिद्धिया । मुणिणा सुद्ध वियम्पिया सा कंतियहे समप्पिया । । छ । । तहिँ वय- णियम सील पालंतिहि पल्ल-विहाण पमुह(2) उववासहिं आयहि लइय कवल - चंदायण अंतयाले चउविह आराहण गिरि - गुह आसंघें वि सण्णासें अच्चुव सग्गे सुरिंदो भामिणि घत्ता छट्ठट्ठम-दह खमण कुणतिहिं । यि तणु सोसिवि वहु-विह आयहिं । कय अणेय-बय सुहय सुपावण" । आराहेवि चउसंघहो सोहण ! मुअ सा दुक्किय कम्म-विणासें । होयवि सुरह पहाण महाईणि । कुंडिणपुरे पवरे भीसमही घरे सग्गहो चएवि उपरिणय । रूविणि णाम वरे वररूव घरे सइ रंभणाइँ अवयण्णिम ।। 154।। [9.1.1 (11) व्रत-तप के फलस्वरूप वह धीवरी कन्या स्वर्ग देवी तथा वहाँ से चयकर राजा भीष्म की राजकुमारी रूपिणी रूप में जन्मी स्कन्धक — वहाँ कोसलपुर में तप, गुण-नियम से समृद्ध, सुप्रसिद्ध एक गणिनी (आर्यिका ) थी। मुनिराज ने शुद्ध विकल्प कर उस पूतिगन्धा को उसे सौंप दिया । । छ । । वहाँ ( वह उनके साथ ) व्रत, नियम एवं शील पालने लगी। छठे, आठवें एवं दसवें उपवास करने लगी (छठा उपवास दो दिन के अन्तर से होता है, उसे वेला कहते हैं। आठवाँ उपवास तीन दिन के अन्तर से होता है उसे तेला कहते । दसवाँ उपवास 4 दिन के अन्तर से होता उसे चौला कहते हैं। एक दिन की दो-दो वेला गिनी जाती हैं ) पल्य विधान प्रमुख बड़े-बड़े उपवास व्रत -तप करने लगी और बहुविध आचारों और आसनों से अपने शरीर को सुखाने लगी । आगे उसने कवलचन्द्रायण व्रत लिया और भी अनेक पावन सुखद व्रत किये। आयु के अन्तकाल में चतुर्विध संघ की शोभा स्वरूप चतुर्विध आराधनाओं की आराधना कर उस धीवरी ने गिरि गुफा का आश्रय लेकर संन्यास पूर्वक मरण किया। उससे उसके समस्त कर्मों का विनाश हो गया। वह अच्युत स्वर्ग में देवियों में प्रधान नायिका तथा सुरेन्द्र की भामिनी हुई। धत्ता – फिर वह उस स्वर्ग से चयकर कुंडिनपुर नामके नगर में भीष्म राजा के यहाँ उत्पन्न हुई । उसका नाम रूपिणी था। वह रूप लावण्य की धाम थी। मानों शची अथवा रम्भा ही अवतरी हो ।। 154 ।। (11) (1) उपवास (2) प्रचुरै: । (3) पवित्र ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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