________________
9.10.20]
महाफश सिंह विरवड पज्जुण्णचरित
[163
10
एम-विहाण विहावरि जामहि मुणिणा मणिय जाति तहे तारहिं ! वोल्लाविय कमला--कमलाणणे कुसतु पुत्ति तहु दिय सुपभायणे। कहिं सोमहँ वल्लहिं तुहु आविय कम्म-फलण केण दुहु पाविय । ता धीमर-सुय चित्त-चमक्कइँ णिय-कर-कमल पिहिवि मुहु थक्कइ । पुव-भवंतर सुमरिवि मुच्छिय सा जइणाइइ पुणु वि पपुच्छिय । सुमरिय कि पइँ णिय-जम्मंतर कहइ मुणिदहो पुटव-भवंतर। पभणइ हउँ पाविट्ठ अयाणिय उत्तम कुल पाविवि दुहु माणिय । जं णिदिउ दयवंतु महारिसि तं खरि-किडिवि-सणि हुव किव्वसि। एमहि धीमर-तणय दुगंधिणि जायदेव दुह-गरद-णिवंधिणि । पहु किं कुणमि कहहि किं गच्छमि जहिं सुह लेसु खणंतर) पेच्छमि। ता पंचाणुब्बय मुणिपाहइ
तिण्णा-गुणव्वय खंति सणाहइ। सुहि सयणहो कासु वि णउ रुच्चमि कुच्छिय जोणिहिँ केम पवुच्चमि। ता पंचाणुव्वय मुणि णाहइ तिण्ण-गुणवय खंति सणाहइ
चउ-सिक्खावयाइँ तहे दिण्णइँ ताई एडिच्छियाइँ सुपसण्ण। 20 पत्ता- पुणु कोसलपुरहो यरह धुरहो चलिउ मुणीसरु जामहिं।
सा धीमरहो सुअ सुकुमाल भुअ अणुमग्ग लग्ग' गय तामहि ।। 153 ।। इस विधान से जब रात्रि बीत गयी, तभी मुनिराज ने उसे जाना और कमला नाम लेकर उसे बुलाया और कहा—"हे कमलानने दिशाओं को अपनी प्रभा से प्रभावित करने वाली हे पुत्रि, तेरी कुशल तो है?" हे सोम द्विज की वल्लरी तू यहाँ कहाँ से चली आयी। अवश्य ही किसी कर्म के फल से तू इस दुःख को प्राप्त हुई है।
तब उस धीवर पुत्री का चित्त चमक उठा। अपने कर कमलों से मुँह ढंक कर बैठ गयी। वह पूर्व-भवान्तरों का स्मरण कर मूञ्छित हो गयी। उसके सावधान होते ही यतिनाथ ने उससे पूछा-"क्या तूने अपने जन्मान्तरों का स्मरण किया है?" तब उसने मुनिराज से अपना पूर्व भवान्तर कह सुनाया और बोली कि—"मैं पायिष्ठ अज्ञानी हूँ। उत्तम कुल को पाकर भी दुःख मानती रही। मैंने दयावन्त महाऋषियों की निन्दा की जिससे खरी (गधी), किंटि (शूकरी) और सड़ी श्वानी (कुत्ती) हुई। हे देव, अब मैं मरक-दुःख बाँधने वाली दुर्गन्धिनी पूतिगन्धा नामकी धीवर-कन्या हूँ। __ हे प्रभो, अब मैं क्या करूँ? कहिए कहाँ जाऊँ? जहाँ कि मैं एक क्षण के लिए लेशमात्र भी सुख को देख सकूँ। में अपने किसी भी स्वजन को नहीं रुचती। इस कुत्सित योनि से कैसे छुटकारा पाऊँ?"
यह सुनकर उन क्षमाशील मुनिनाथ ने उसे पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षावत दिये। उसने भी प्रसन्न चित्तपूर्वक उन्हें स्वीकार किया। घत्ता- पुन: जब उन मुनिराज ने नगरों में प्रधान (धुर) कोशलपुर की ओर विहार किया। तब सुकुमार
भुजावाली वह धीवर-पुत्री भी उनके पीछे-पीछे चली।। 153 ।।
(10) Lax.
(10) (2विप्रभवांतरे। (3) नरक सधिनी। 14 तेषमा । (5) स्यामि :