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________________ 1621 महाफइ सिंह विराउ पजुग्णचरिउ [9.9.7 णरु-णारि जु मुणिहें दुगुंड करइ सो भव सायरि बुड्ढुन्तु मरइ। एत्यंतरे तहिं तरणिहिं तीरे अग्गहण विणिग्गमे हिम-समीरे। मुणि एक्कु आउ मेइणि भमंतु तव-झाण जोए कय णिय भ मंतु। दिण-मणि अत्यमिय ण प3 वि देइ तहिं णियमु करेवि सज्झाउ लेइ। णग्गोहु एक्कु तडे विपडे दिछु अत्यंत सूरे तहो तलि णिविटछु । घत्ता ... संठिउ झाण परु णं मिरि वर णिसि भरु सिसिरु पडतउ। गणइ ण सील धरु णिट्ठ) वियसरु अहिवि छिउ देहि चडतउ।। 152 ।। (10) खंडयं ता धीवरिए जइसरो पेच्छेदि हय वम्मीसरों। तरुदलणियरा वेच्चियं मुणि कमलं अंचियं ।। छ।। जह-जह रयणि समग्गल वट्टइ तह-तह सिसिर-णिवहु सुपयट्टइ। पुणु धीवरि तिण तरुदल लेबिणु जई सरीरु झंपइ आणेविणु। अथवा नारी जंा भी मुनियों से घृणा करता है, वह संसार समुद्र में डूबकर मरता है। इसी बीच उस नदी के किनारे अगहन महीना के निकल जाने तथा ठण्डी वायु के चलने पर तप, ध्यान और योग में नियम रखने वाले एक मुनिराज पृथिवी पर भ्रमण करते-करते वहाँ आये। सूर्य के अस्त होने पर वे एक पैर भी आगे नहीं देते थे। सन्ध्या समय वे वहीं पर नियम लेकर ध्यान में लीन हो जाते थे। उन मुनिराज ने विकट तट पर एक न्यग्रोध (वट') वृक्ष देखा तथा सूर्य के अस्त होने पर वे उसके तले बैठ गये और. घत्ता-- ध्यानमग्न होकर वे वहाँ इस प्रकार निश्चल हो गये मानों कोई गिरिवर ही हो। रात्रि भर शिशिर पड़ती रही। (बर्फ गिरती रही) उससे पीड़ित देह पर बर्फ चढ़ते हुए भी, कामबाण के नाशक, पशीलव्रतधारी उन मुनिराज ने उसे (उस पीड़ा को) कुछ भी नहीं गिना (समझा)।। 152।। (10) धीवर कन्या को अणुव्रत प्रदान कर मुनिराज कोसलपुरी की ओर चले। वह धीवर कन्या भी उनके पीछे-पीछे चल दी स्कन्धक— तब धीवरी ने कामविनाशक यतीश्वर को देखकर वृक्षों के पत्र-समूह को चुनकर मुनिराज के चरणकमलों की पूजा की ।। छ ।। जैसे-जैसे रात्रि समग्रता को प्राप्त होने लगी, वैसे ही वैसे शीत का समूह भी बढ़ने लगा। पुन: वह धीवरी तृण एवं वृक्षों के पत्ते ला-लाकर यति के शरीर को झाँपने लगी। 19) 1. ॐ 'व। (9) (2) स्वध्याय । (3) जिनमः। (109 11) समूहमहाल्ला।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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