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खंडयं—
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मडाकर सिंह विरकड पज्जुण्णचरिउ
उठउ डसडिय परिगलिय कण्ण सत्तमे दिण सिहि साहिवि विवण्ण स्वरि पुणु विभुंडि (1) कुक्कुरिय जाय सा साणिवि गामपले वणेण धीवर - उबरे हूम
र घरणिहिं पुणु
(8) 3. अ अ ।
पत्ता- तहिं वयि जिलए धम्महो विलए किर जाम ताम जणु बोल्लइ । गामि वसंतइ ण गेहइ अणेण भणु को ण दुगंधइ डोल्लइ । । 151 ।।
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सिरि तुडिय - केस कुट्ठेण छष्ण
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मुणि उवहसणे णिण्णट्ठ काय | पसविय पुणु मुय उज्झिवि खणेण । अइ दि पूय-गंधिणिवि धूव ।
ता धीवरेण वि चिंतियं णिय-हियएण वियध्मियं ।
इय दुहियाए समाणयं लहमि ण कत्थ वि ठाणयं । । छ । ।
ता अमर तरंगिण तड़ि-विसाले
तहिं साकिर णिवस पूइगंथि
दुक्क पण कोवि सुहि सयणु पासि जो संतह दंतहँ कुणइँ हासु
तहे कारणे किउज्झो पडउ माले ("। अहवह दुक्खु कय कम्म बुद्धि । जं मुणिहिं कियउ विप्पउ वि आसि । रु घरिणिण संपय होइ तासु ।
के बाल झड़ गये और शरीर कुष्ट रोग से भर गया। सातवें दिन वह विवर्ण होकर अग्नि में जल गयी और मर गयी, उसने गधी शूकरी एवं कुतिया का जन्म धारण किया। इसी प्रकार मुनि का उपहास करने के कारण नष्टका वही कुतिया पुनः मरकर एक नगरपाल के यहाँ पुन: कुतिया हुई और वहाँ वह जलकर मरी और तत्काल ही एक धीवरी की कोख से अतिनिन्द्य पूतगन्धा नामकी पुत्री के रूप में जन्मी ।
धत्ता—
उस धीवरी के घर में वह मूतगन्धा बढ़ने लगी, किन्तु धर्म के नष्ट होने पर धाम रूप उस नगर में जहाँ-तहाँ लोग बोलने लगे कि "न तो गाँव में रहने वालों और न किसी अन्य के घर में से ( यह दुर्गन्ध) आती है, फिर बोलो, कि इस भयानक दुर्गन्ध से कौन नहीं डोल रहा है ? ।। 151 ।।
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(9)
पिता द्वारा निष्कासित पूतिगन्धा नदी किनारे रहने लगी। वहाँ एक मुनिराज पधारे स्कन्धक— उस धीवर ने भी अपने हृदय में विचार किया कि इस पुत्री के रहते हुए मुझे कहीं भी रहने को स्थान नहीं मिलेगा ।। छ । ।
इसी कारण (निष्कासित कर दिये जाने पर ) उसने अमर-तरंगिणी नदी के सुन्दर विशाल तट पर एक झोपड़ा बना दिया। वह पूतिगन्धा वहीं पर रहने लगी और पूर्वकृत कर्मों के दुःखद फल का अनुभव करने लगी। जिसने मुनिराज का इतना तिरस्कार किया था, उसके पास अब परिवार अथवा सम्बन्धी कोई भी व्यक्ति दूँकता तक न था। जो सन्त एवं दान्त जनों की हँसी उड़ाता है, उसके पास घर, गृहिणी एवं सम्पदा नहीं रहती । नर
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(9) (1) वनम |