SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1601 महाकद सिंह बिरज पज्जुण्णचरित [9.7.10 10 पेछति वि खंतिवि वगुजा भवतु वि संतुवित्तु नहिं । घत्ता.... अइ मल-मलिण तणु सुविसुद्ध मणु तव-ताव-किलामिय गत्तउ । मासोवास परु हय-कुसुमसरु पारण-णिमित्तु दयजुत्तउ ।। 150 ।। खंड्यं जा दिय" मज्जेवि दप्पणं रूउ णिहालइ अप्पणं । ता धर-वार-पराइउ मुणि - दरिदु णिज्झाइउ ।। छ ।। किर अलय-तिलय संजवइ खणे मुणि पेच्छेवि कमला-कुविय मणे । चिंतद् इह कय विलास दिलउ कहिं आयउ हले असव'ण-णिलउ । चिंय कट्ठोवमु मल-मलिण-तणु जो णियविमाइ महो तसिउ मणु। इउ चितंतिहिं मुणि गयउ जाम तणु सयलु ताहि उच्छलिउ ताम। णीसेसु वि फोडहँ भरिउ केम आयण्णु ण दुक्कइ णाहु जेम। पुणु झसिय चम्म गग्गिरिय वाय अंगुलिय सलिय ढुंदुरिय पाय । मुख वाले सन्त को देखकर वह भयभीत हो गयी। घत्ता--- अत्यन्त मलिन तन, सुविशुद्ध मन, तप-ताप से क्लिन्न गात्र, मासोपवास करने में तत्पर, कुसुमसरों को नष्ट करने वाले, दया-निधान, मुनिराज पारणा के निमित्त उस नगर में पधारे।। 150 ।। (8) (रूपिणी के भवान्तर-) वह रूपगर्विता पुत्री (लक्ष्मी) कुष्ट रोगिणी होकर मरी, विभिन्न योनियों में जन्म लेकर पुनः पूतगन्धा नामकी धीवरी कन्या के रूप में जन्मी स्कन्धक--. जब वह द्विज-पुत्री लक्ष्मी स्नान कर दर्पण में अपना रूप निहार रही थी तभी घर के दरवाजे पर (उसने) उन मुनिवरेन्द्र को देखा।। छ।। अलक-तिलक (भौरे के समान अत्यन्त काले) उन संयत मुनि को देखकर वह कमला (लक्ष्मी) अपने मन में अत्यन्त कुपित हुई । वह अपने मन में सोचने लगी कि—"कहाँ तो यह मेरा विलास-विला (विलास-भवन) और कहाँ यह निन्द्यकालिमा का निलय । यहाँ यह कैसे आ गया? इसका तन चिता की लकड़ियों के समान मल से मलिन है, जिसे देखकर मेरा मन त्रस्त हो उठा है।" इस प्रकार जब वह चिन्तामान थी और मुनिराज वहाँ से चले गये तभी उसके सारे शरीर में छाले निकल आये। उसके समस्त फोडों (छालों) में कृमि पर गये। जिससे उसके पास कोई फटकता ही न था। उसकी चमड़ी झुलस गयी, वाणी लड़खड़ाने लगी, अँगुलियाँ सड़ गयीं, (चलते समय) पैर ढुंढुरने (घिसटने) लगे, ओंठ डसडसाने लगे (काँपकर एक दूसरे से भिड़ने लगे), कान गल गये, सिर (8) 1. अ '31 2. अ. सणा (8) (1) दंततिर्नल | (2) चिता।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy