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9.7.9]
महाकद सिंह विरहाउ पज्जुण्णचरिउ
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कवण जणि किर कहहि भडारा भो-भो भव्य भवंहि तारा ।
ता मुणि भणइ णिसुणि तुहुँ वम्महणिय मायरिहिं तणिय चिरभव कह । यत्ता- उववर्ण-घण-विसए(4) सेविय विसए सर-सरवर (वि णिरंतरे।।
जहि मगहाविसए जीवण-विसए पच्छिपण कोइ भुवणंतरे।। 149 ।।
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खंड्यं
तहिं भूवालु गरेसरो तह महएबि वियक्खणा सो गरवइ-सुरवइ सम सरिसु तहो पुरवरे वह घरे लेा हिउ तहो वंभणि थंम णिरूवरई तणु अमला-कमला णामवरा सिंगारई सारंग' गविणिया सुकुमालिय वालिय एम घरे 'मण-रंजणु दिहि घरेवि पुरे"
णिय पय-पंकय सरो। अहिहाणेण सुलक्खणा ।। छ।। वाय' हैं सो यहँ ल करिसु। सुविधेप-ले सोविमल जणि दुल्लहें-वल्लहैं पिय होसइ । लायण्णइँ वण्णई लच्छि परा। धण्ण-धण्ण सुवण्णइ सहवि ठिया। जा 'अच्छइ-पेच्छइ सारयरे। मउरंदु वि चंदुवि कर-विकरे।
से तारने वाले हे भट्टारक, कहिए कि मेरी माता कौन है?" तब मुनिराज ने कहा—“हे मदन, अपनी माता के भवान्तर सुनोपत्ता- अनेक घने-घने उपवनों, देशों तथा नदी-सरोवरों से निरन्तर सेवित मगध नामका देश है। संसार
में जिसकी (जीवन्तता—) समृद्धि की तुलना में अन्य कोई देश नहीं।। 149 ।।
(रूपिणी के भवान्तर-) मगधदेश के सोम-द्विज की लक्ष्मी नामकी रूप गर्विता पुत्री थी स्कन्धक- उस मगधदेश में प्रजा रूपी पंकज के लिए सर्य समान भूपाल नरेश्वर राज्य करता था. जिसकी सुलक्षिणी महादेवी का नाम विचक्षणा था। छ।।
सुरपति के समान उस नरपति ने पक्षियों में हंसों के समान ही उत्कर्ष प्राप्त किया था। उसी नगर के एक घर में विवेकी वेद विद्या-सम्पन्न सोम नामका कोई द्विज निवास करता था। इसकी लोगों के लिए दुर्लभ, अपने प्रियतम के लिये सदा प्रिय लगने वाली कदली-स्तम्भ के समान उर वाली कमला नामकी ब्राह्मणी थी, उसकी निर्दोष शरीर वाली लक्ष्मी नामकी एक सुकुमार बालिका थी जो रूप-लावण्य में मानों दूसरी लक्ष्मी ही थी। अपने शृंगार-रंग में वह अत्यन्त गर्ववती थी, धन-धान्य एवं सुवर्ण उसके साथ सदा बने रहते थे। इस प्रकार जब वह सुकमार बालिका (लक्ष्मी) अपने सारभूत घर में रह रही थी, तभी एक समय मकरन्द रूपी किरण-समूह को विकीर्ण करने वाली वह चन्द्रमुखी अपनी मनरंजन दृष्टि से नगर को देख रही थी, तभी वहाँ पवित्र क्षमा-शील
(600) उपवनविराज्याने । 14) पचेन्द्रिय दिव।सरोवर-पानीय 146) विविसथे। (7) 1. अ. गाएँ। 2. 3 भएँ। 3. Ex | 4. अ.। 5-6. अ. (1) विवेकेग वेदेन । (2) घंभण विषये कारनि ।