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महाका सिंह विरदाउ पज्जण्णचरिउ
19.5.12
घत्ता- कय पय-णेउरहो अंतेउरहो सयलु वि एह जगसारिय ।
अणसिया) संवरहो विज्जाहरहो मणवल्लह णयण-पियारय ।। 148 ।।
खंडय
कंचण सगुणहिहाणिय सब सुलक्षण राणिय।
राउ अणसियसंवरो जस वित्थरिय धुरंधरो।। छ ।। विण्णिवि गयणे जाणे "संचलियइँ एक्क दिवहे वण-कीलइँ चलियईं। घण-थण-पणयणइथ संजुत्तइँ गिरि-तक्खउ णामई संपत्तई। तहिं खयराइवि णाम-पसिद्धी जिणवसइ व सावय-कुल-रि दी। तहिं वणे तुहुमि सिलायले दिट्ठ कंचणमालइँ रायहे सिह। ता णिय-णंदणु भणेवि वियप्पिउ उच्चाइवि तहे रमणिहे अप्पिउ। पुर, गिरे अति आदें
समि-मायण-मंगल सदें। एम विद्धिए आयहँ मंदिरे
सज्जण-जण-मण णयणाणंदिरे। एहु ण जणणु ण तुह इह मायरि बन्जदसणु पमुहइ गउ भायरि ।
तं णिसुणेविणु मयणु पयंपइ आयहँ वयणहिं महु मणु कंपद् । घत्ता- इस प्रकार पदों में नुपूर धारण करने वाली. अन्तःपुर में प्रधान, सम्पूर्ण जगत् में श्रेष्ठ, मन-वल्लभा, नयनों को प्यारी वह कालसंवर नामक विद्याधर राजा की रानी हुई।। 148 ।।
(6) मुनिराज द्वारा कंचनमाला को प्रद्युम्न-प्राप्ति का वृत्तान्त कथन तथा रूपिणी के भवान्तर स्कन्धक— विस्तृत यश एवं धुरन्धर वह राजा कालसंवर एवं सद्गुणों की निधान तथा सुलक्षणा वह रानी कंचनमाला..- || छ।।
दोनों ही किसी एक दिन गगनयान से चलकर वनक्रीड़ा के लिये गये। कंचनमाला घनस्तन वाली प्रणयिनी के साथ वह राजा तक्षक नामके गिरि पर पहुँचा। वहाँ नाम प्रसिद्ध खदिराटदी है। श्रावक-कुलों के लिए जिन-वसति के समान ही वह श्वापदों (वन के जीद) की ऋद्धि-स्थली थी। उस वन की शिलातल में तुम्हें (प्रद्युम्न को) देखा। कंचनमाला से राजा ने बताया । तभी राजा ने "निज नन्दन" कहकर विकल्प किया और तुम्हें उठाकर अपनी रमणी कंचनमाला को अर्पित किया। पुन: आनन्दपूर्वक गीत, वादिन और मंगल छाब्दों के साथ उसे अपने नगर में ले आये। इसके आगे से तू उस माता के सज्जन जनों के मन और नयनों को आनन्ददायक, भवन में बढ़ने लगा।
न यह तुम्हारा पिता है और न यह तुम्हारी माता। वज्रदशन प्रमुख तुम्हारे भाई भी नहीं हैं। उनका कथन सुनकर मदन बोला कि-"आपके वचनों से मेर। मन काँपने लगा है। भच्यों को भव-समुद्र
15) (4) कालसंवरल्य। (6) (1) विमान | (2) सिंज्ञाउत्परे।
16) I. अगि । 2.3 गउ।