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________________ 9.5.JI महाकद सिंह बिराउ पज्जुण्णचरित 1157 घत्ता- तहो णव कण्यप्पह इह कणयप्पह णामेण आसि पिय मणहर। सा पइँ हरिवि णिय तुह पासि ठिय अइवियड-रमण-घण-थणहर ।। 147।। (5) खंडयं कंचणरह कुल उत्तिया सा चिर भवे पई भुत्तिया। तेण अहिलासहि कारणं तं भय लज्ज णिवारणं । ! छ ।। तहिं काले णिमितु तहेवि कोवि णिय भायहो ढोएवि रज्जु सोवि। पुणु घोरु वीरु तवचरणु चरेवि आउक्खइँ सण्णासेण मरेवि। अणु” परिवाडए सोलहमें सग्गे कइडिहु वि तुहुँ जि जिण भणिय मागे। हुव पुण्ण-पहावें गुण-णिहाण उप्पण्ण बेवि सुरवर पहाण। आयई तवचरणु कियउ असज्झु ण) करि करयारइ वटु गेज्झु । अण्हाणु-अजिंभणु-णिका करणु लि:-लोरा मत पं.- घरगु । णिवियरु-पक्ख-मासोपवासु काऊण अंते अणसण धया। 10 गय सगे सोक्षु भुजेवि णियत्त कालइँ विज्जाहर सेढि पत्त। खयर दरिं अणुहुंजिय सिवेण परिणिय वि कालसंबर णिवेण। धत्ता- "उसकी नवीन कनकप्रभा वाली कनकप्रभा नाम की मनोहर प्रिया थी। तुमने अतिविकट रमण एवं सघन पयोधर वाली उस रमणी का अपहरण कर उसे अपने पास रखा था।" ।। 147 ।। कंचनप्रभा का पूर्व-भव । वह वडपुर के माण्डलिक राजा कनकरथ की पत्नी थी स्कन्धक– कंचनरथ राजा की जो कुलवधु थी उसे पूर्व-श्रव में तुमने भोगा था। अत: उस की विषयाभिलाषा तथा भय एवं लज्जा के निवारण (अर्थात् तुम्हारे प्रति धृष्ट एवं निर्लज्ज होने) का यही कारण है।। छ।। उस काल में कोई निमित्त पाकर तुमने अपने छोटे भाई कैटभ को राज्य दे दिया और स्वयं धीर-वीर तपश्चरण कर आयु-क्षय के समय संन्यास से मरण किया और सोलहवें स्वर्ग में जन्म पाया। कैटभ भी तुम्हारे समान ही जिन कथित मार्ग में चलकर अपने पुण्य प्रभाव से उसी सोलहवें स्वर्ग में गुणनिधान देव हुआ। इस प्रकार वे दोनों ही सुरवरों में प्रधान देव हुए। पूर्व-भव की उस महिला कनकमाला ने भी असाध्य तपश्चरण किया। मानों हाथी की सैंड समान कर वाले देवों की वाट (मार्ग) ही ग्रहण कर ली हो। वह रानी (आर्यिका बन कर घोर तप कर रही थी) अस्नान, उपवास, क्षितिशयन, पंचेन्द्रिय जय, सिर-लोंच, अदन्तधावन, असरस भोजन, पक्ष एवं मासोपवास तप करके अन्त में अनशन धारण करके मरण कर स्वर्ग में गयी। वहाँ के सुख भोगकर वहाँ का आयु-काल पूराकर वह विद्याधर श्रेणी में उत्पन्न हुई। यह कंचनमाला कल्याणपुण्य भोगने वाले राजा कालसंवर के साथ विवाही गयी। (5) (1) पद्यपि। (2) कनकमालया। (3) तप।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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