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________________ 9.3.15] महाका सिह विरहाउ मज्मुण्णचरित [155 ताम कुमारहो हियवउ कपिउ पणिउ माइ-माइ किं पिउ। कि गह-गहिय अम्मि कि भुल्लिय चवहि अजुत्तु किण्ण मणि सल्लिय । उत्तमकुल कि एउ भणु वुच्चइ जं जिविला" इह तणइ ण विच्चइ। मायइँ सहु परयार-रमंतहँ किं कुलधम्मु होइ भणु संतहँ। कायमाल पुणु भणइ कयायरि संवर जणणु पण हउँ तुह मायरि । किम संगत्तणु पइसहु बट्टइ चित्ति महारइ एहु जि पयट्टइ। पुणु मयण' पवुत्तुह जाणउँ तुहु जि जणणि पिउ संवरु राणउँ। पर जंपिवि भिंदिदि पिग्गर . पुण निणर्मदिरे झत्ति समागउ। मयणे णिज्जिय मयणु णमंसिल थुइ दंडयहि अरुहुँ सुपसंसिउ। पुणु जंपिउ कुसुमसरु वियारउ उबहिचंदु णामेण भडारउ। जो मय-माणप-मोह-भय चत्तउ मुणिय तिणाणु तिगुत्तिहिँ-गुत्तउ।। घत्ता-- वय-संजम-धरणु, णिज्जिय-करणु परमेसरु पाव-खयंकर | ___ जो अदुगुंछियउ सो पुंछिय' कुसुमसरई सत्त) सुहकरु ।। 146।। 10 - ___ तब कुमार का हृदय काँप उठा और बोला- "हे माई, हे माई, यह क्या कह दिया? हे माँ, क्या तुम ग्रह (भूत) से ग्रसित हो गयी हो अथवा क्या तुम मुझे भूल गमी हो?" ऐसा अयुक्त कहते हुए क्या मन में चुभन नहीं होती? उत्तम कुल वाले क्या ऐसे वचन अपने मुख से कहते हैं? इस प्रकार से बोलने वालों की जिह्वा टूट क्यों नहीं जाती? “माता तथा परदारा के साथ रमण करने वाले मनुष्यों का क्या कुल-धर्म सुरक्षित रह सकता है?" यह सुनकर कनकमाला पुन: आदर करती हुई बोली- न तो कालसंवर तुम्हारा पिता है और न मैं तुम्हारी माता। तुम्हारे साथ मेरा क्या सम्बन्ध है? (अर्थात् पुत्रपने का कोई सम्बन्ध नहीं)। इसीलिए मेरे चित्त में यह महारति प्रवर्त्त रही है।" यह सुन कर पुन: मदन ने कहा-"किन्तु मैं तो यही जानता हूँ कि तुम मेरी माता हो और कालसंवर राजा मेरे पिता।" ऐसा कहकर और माता की भर्त्सना कर वह प्रद्युम्न वहाँ से निकल गया और तत्काल ही जिनमन्दिर में पहुँचा। उस मदन ने मदन को जीतने वाले जिनेन्द्रदेव को नमस्कार किया। स्तुति और दण्डकों से अर्हन्त की प्रशंसा कर बन्दना की। __पुनः उस कुसुमशर (प्रद्युम्न) ने काम के विदारक मद, मान, मोह और भय से त्यक्त, तीन ज्ञानधारी तथा त्रिगुप्ति से गुप्त उदधिचन्द्र नामके जो भट्टारक थे, घत्ता- जो व्रत, संयम के धारी हैं, इन्द्रियों के विजेता है. पापों के क्षय करने वाले परमेश्वर हैं, जो आनन्दित हैं, सब जीवों के सुख को करने वाले हैं, उन उदधिचन्द्र नामके भट्टारक से कुसुमशर प्रद्युम्न ने पूछा।। 146।। (393) जिवानां। (2) लगाई। (3) पृष्टः । (4) जीवाना।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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