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महाका सिंह विराउ पडण्याचारउ
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ता तहि विरहाणलु तवइ अंगि हुव-अत्ति सरीरहो अवर भंगि। णियमणे चिंततिहे कुसुमवाणु मुह सुसइ-खसइ एक्कक्क पाणु। तणु डाहु-कंपु-णिस्सास-सुवइँ पस्सेज पवरु परियणहो कुवइँ। मलयाणिलु-सीयलु कमल-सयणु जलसिंचणु-चामर-चारु पवणु। धणसार-हारु-चंदण जलद्दु
ण सुहाइ मयच्छिहे कि पि भडु। इसीसि सुहुमु पुणु सावि भणइ | पज्जुण्णु सरोरहो चेट्ठ मुणइ । पत्ता- पुणु धाइय तुरिउ विभिय भरिउ जाएवि पज्जुण्णहो बोल्लिउ। तुह जणिहिँ तणउँ अइ छण-छणिउँ सुणि कुमार तणु डोल्तिउ।। 144 ।।
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खंडयं
तं णिसुणेवि सुंदरो जो विहुरम्म अकंदरो।
जं खयरामर मणहरं पुणु आयउ मायाहरं ।। छ।। तहिं आएवि जाम उवविउ विज्जाहरइँ कुसुमसरु दिट्ठ। हाव-भाव-विन्भम दरिसंतिए वोल्लाविउ विवरे रएं भंतिए।
तब उस रानी के अंगों में विरहानल तपने लगा और शीघ्र ही उसके शरीर का भंग होने लगा (अर्थात् शरीर टूटने लगा)। वह विरहिणी अपने मन में उस कुसुमबाण-प्रद्युम्न का चिन्तन करने लगी। उसका मुख सूखने लगा, प्राणों का एक-एक क्षण खिसकने लगा, शरीर जलने लगा, कम्पन होने लगा, दीर्घ श्वासे चलने लगीं, पसीना चूने लगा और परिजनों से क्रुद्ध रहने लगी। उस मृगाक्षी को शीतल मलयानिल, कमलशैया, जलसिंचन, चामरों की चारु-पवन, घनसार (कपूर), हार और जल से आर्द्र चन्दन जैसी भद्र वस्तुएँ भी नहीं सुहायीं। वह मन्द-मन्द सूक्ष्म बोल बोलने लगी। अपने शरीर की चेष्टाओं से वह प्रद्युम्न को ही मानती रही। घत्ता— रानी कनकमाला (कंचनप्रभा) की वह घाय विस्मय से भरकर तुरन्त ही प्रद्युम्न के पास जाकर
बोली-“हे कुमार, सुनो, तुम्हारी जननी का शरीर अत्यन्त छनछना कर डोल रहा है। ।। 144 | 4
(2) काम विह्वल होकर रानी कंचनमाला कुमार प्रद्युम्न से प्रणय-निवेदन करती है स्कन्धक... उस धाय की बात को सुनकर दु:खियों के दुःख को दूर करने वाला वह सुन्दर प्रद्युम्न स्वचरों एवं अमरों के मन को हरने वाला माता के घर आया।। छ।।
वह कुसुमशर प्रद्युम्न आकर जब वहाँ बैठा विद्याधरी माता ने उसे घूर कर देखा। वह उसे हाव-भाव विभ्रम दरसाने लगी। लड़खड़ाती एवं भ्रान्ति उत्पन्न करने वाली बोली बोलने लगी। उस रानी ने अपने पीन उतुंग