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________________ 152] महाकद सिंह बिरहउ पज्जण्णचरित 19.1.1 णवमी संधी पुणु हरि-गंदणेण, 'अरिमद्दणेण वज्जरिउ माइ अणजुत्तउ । जं पइँ 'जंपियउ 'महो कंपियउ तेण वयणे हियउ णिरुतउ।। छ।। खंडयं हउँ तुव अम्मि पेसणो रायसासणो कहहि कहमि भूल्लो। जइवि पर्यपि जणियउ करमि भणियउ तुज्झु भिच्च तुल्लो।। छ।। तं णिसुणिवि चल-लोयण विसाल विसेविणु पभणइ कणयमाल । भो- भो सुंदर पुक्खर-दलक्ख भो मयरकेय दक्खाण-दफ्त। महो मणहं पियारउ कुणहि कज्जु जेम तो भुंजावमि सयलु रज्जु । तं आयण्णिवि पज्जुण्णु चवइ चिरु-जीवउ पहु सवर णिवइ । तुहुँ जणणि भुषणे सो जणणु जासु किं रज्जे महु फलु अहिउ तासु । इउ जंपिवि पुणु उठिउ तुरंतु गउ सणिहेलणु मणि-गण फुरंतु । 10 नवमी सन्धि (1) रानी कनकमाला (कंचनप्रभा) की कामावस्थाएँ। कुमार प्रद्युम्न किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है पुन: अरिमर्दन हरिनन्दन ने कहा—"हे माता, आपने जो कहा, वह अनुपयुक्त है। आपके इन वचनों से मेरा हृदय अत्यन्त काँप रहा है।। छ।। स्कन्धक— हे अम्बे, मैं तो आपका प्रेषण (दास) हूँ। राजशासन (आज्ञा) कहिए (उसे पालूँगा)। मैं आपको भूल कैसे सकता हूँ।" यद्यपि आपने मुझे जन्म दिया है। तो भी मैं आपके वचनों का पालन भृत्य के समान करता हूँ।। छ।। उसको सुनकर विशाल एवं चंचल लोचनवाली वह रानी कनकमाला हँसकर बोली- "हे सुन्दर, हे कमलदलाक्ष, हे दक्षों के दक्ष, हे मकरकेतु, मेरे मन को प्रिय लगने वाला कार्य करो। जिससे कि मैं तुम्हें समस्त राज्य को भोग करा सकूँ।" यह सुनकर प्रद्युम्न बोला—"प्रभु कालसंवर नृपति चिरकाल तक जिएँ, इस लोक में जिसकी तुम जैसी माता और कालसंवर जैसा पिता है, उसके राज्य में मुझे और अधिक फल क्या हो सकता है?" इस प्रकार कहकर और उस रानी की अवहेलना कर मणिगणों से स्फुरायमान वह कुमार तुरन्त उठा और अपने निवास स्थान पर चला गया। (1) 12. अ.x| 3. अक। 4.5. अ.x |
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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