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8.19.1]
महाका मिह विरह पम्जुण्णचरित
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(19) गउ णिय णिलउ कुसुमसरु जामहिं तल्लोबेल्लि छुट्टि तहे तामहि । दरकारहु कि प्राइ पएशिव ५. नाद तहो गहि गवेसिय। लहु आणहिं मणसिउ म चिरावहि सो कुसुमसरु तुरिउ महु दाविहु । ता जाइवि धाइएँ बोलिज्जइ तुह मइरिहे किंपि ण मुणिज्जइ । असुहत्थी कलमलउ पयट्टइ तल्लोवेल्लि सरीरहो वट्टइ। तुहुमि अणेय पमेय वियरवणु चट्ठ णिहालहि तहिं जाइवि खणु। मणसिउ-मणे चिंतइ किं कारणु जणणिहिं तणउँ सिन्धु हक्कारणु।
एउ चिंतिवि पुणु तहिमि पहुत्तउ अम्मि देहि आएसु पवुत्तउ। घत्ता- जंपइ कंचणमाल जोवण-रूव-समिद्धहो।
गण्णु कोइ अम्हारिसहिं तुहु विज्ञावल सिद्धहो ।। 143 ।। इय पज्जुण्ण कहाए पयडिय धम्मत्य-काम-मोक्खाए कइ सिद्ध विरइयाए 'कुमार बहु विज्जालाभ माताभिलाष वन्नण णाम' अट्ठमी संधी परिसमत्तो।। संधी: 8।। छ।।
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(19) कामविह्वल होकर कंचनमाला कुमार प्रद्युम्न को दूती द्वारा अपने निवास पर बुलासी है जब वह कुसुमशर मदन अपने निलय को चला गया तब उस रानी (के मन) में बड़ी तड़फड़ी छूटी। देर करने वाले उस मदन के पास उसने अपनी धाय भेजी। उसे माता रानी ने आदेश दिया कि—"तू उस मनसिज--मदन को शीघ्र ही ले आ, देर मतकर, उस कुसुमशर को तुरन्त ही मेरे सामने ला दे।"
तब जाकर उस धाय ने (उस मदन से) कहा-"तुम्हारी माता को कुछ भी अच्छा नहीं लगता। वह अत्यन्त व्याकुल होकर कलमला रही है। उसके शरीर में बड़ी तड़फन हो रही है। तुम अनेक प्रमेयों में (विषयों में) विचक्षण हो।
अत: चट से क्षण भर में पहुँच कर उसे देख लो। "यह सुनकर वह मनसिज अपने मन में विचारने लगा"क्या कारण है, माता का शीघ्र ही बुलवाने का?"
ऐसा चिन्तन कर वह पुन: माता के पास पहुंचा और बोला-"हे माता मुझे आदेश दीजिए।" घत्ता- कंचनमाला यौवन एवं रूप से समृद्ध विश और बल से सिद्ध उस कुमार से बोली-"तुम्हारे मन में
हम जैसी महिलाओं की क्या गिनती?" || 143।। इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को प्रकट करने वाली सिद्ध कवि द्वारा विरचित प्रद्युम्न कथा में कुमार द्वारा बहु-विद्या-लाभ एवं माता की विषयाभिलाषा सम्बन्धी वर्णन करने वाली आठवीं सन्धि समाप्त हुई।। सन्धि : 8।। छ।।
(19) 1.2. अ.४।
(19) (1) प्रमाण।