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महाकद सिंह विरइड पज्जुष्णचरि
कवि पसंसण मुहुं जोवंतई जाहि भयण णिय जणणिहिं राउले
ता संचलिउ तहिमि पिय-वयणइं सो वि णिहालिवि णमण विसालई चिंतिज इह रज्जई किं किज्जइ णव- जुवाणु वहु लक्खण भरियउ वरविज्जउ साहिवि संपायउ एहु रमतहं णवि काइम छलु एउ चिंतंतहिं भणिउ कुमारइँ णिय आवास जामि जइ बोल्लहिं
(18)
(18) असम । 2. अ सभवखण।
पुणु पमणिउं कंचण 'पह कतई ।
कणय- कलस सउहलयर माउल । जायवि-जणणि णमंसिय भयणई । दिण्णासीसई कंचणमालए। जहि ण कुम्हारु एहु माणिज्जइ । अवरु वि मयक्खिउ अवयरियउ । सरसु अणंगु सलक्खल कायउ । रममि लेमि हउ - हउ संसारहो फलु । पुरिसोत्तम तणयइँ पर सारइँ । दे असु अम्म मोकल्लहिं ()।
पत्ता- ता जंपिउ लज्ज परव्वसए घर जाएवि लहु आवहि । वि फिट्टइ उव्वाहु लहु सुंदर तहिं म चिरावहि ।। 142 ।।
[8.18.12
(18) ( धर्ममाता ) कंचनप्रभा की (धर्मपुत्र) प्रद्युम्न
प्रति प्रबल काम भावना
राजा कालसंवर ने नन्दन - प्रद्युम्न के स्वर्ण की प्रभा के समान कान्ति बाले मुख की ओर देखते हुए प्रशंसा कर पुनः कहा- " हे मदन, राजकुल ( अन्त: पुर ) में रमाओं से व्याप्त कनक कलश वाले सोधतल में अपनी माता के पास चले जाओ ।" पिता के वचन सुनकर वह उस भवन में चला और वहाँ जाकर उसने जननी को नमस्कार किया। कंचनमाला ने नयनविशाल उस मदन को देखकर आशीष तो दी किन्तु वह मन में विचार करने लगी कि-"इस राज्य का क्या किया जायेगा, यदि यह कुमार ( मुझे ) स्वीकार न करे ? यह कुमार अभी नवयुवक है, अनेक लक्षणों से भरा-पूरा है और भी, कि इसमें मकरवेग ( काम का वेग ) उत्तर आया है, विविध विद्याएँ साध कर आया है, यह सरस अनंग श्लक्षण (चिक्कण ) काय वाला है, अतः इससे रमते हुए मैं कोई भी छल नहीं करूँगी। मैं इससे रमूँगी और संसार का फल लूँगी।" अपने मन में इस प्रकार के विचार करने वाली उस रानी से पुरुषोत्तम के तनय नरेन्द्र उस कुमार ने पूछा - "यदि आप बोलें तो मैं अपने आवास को चला जाऊँ । हे माता, आदेशा देकर मुझे छोड़ दीजिए।”
घत्ता— तब लज्जा से परवश होकर वह (रानी) बोली - "हे सुन्दर, घर जाकर भी शीघ्र चले आना । वहाँ देर मत लगाना । मेरा शीघ्र ही उद्वाह (भोग) करो, अब वह (मेरा राग ) छूटेगा नहीं ।" ।। 142 ।।
(18)] []) हे कुमार तत्र विद्याबल समृद्ध अस्मादृशैः मनुष्यै किं आदेशदातु यं भवति अपितु नमसचेष्टत्वकितजानासि ।