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________________ 8.17.13] महाका सिह विराउ पज्जुण्णचरिउ [149 15 कहइ वसंतु णिसुणि पहु वम्मह सुर-णर-विसहर व रण दुम्महं । मरगय-मणि-समूह सिहरढहो इह दाहिण-सेढिहि वेयड्ढहो। सरि-सरबर-उववणे विभिय सुरु अस्थि रयणसंचउ णामे पुरु। तहिं विज्जाहरवइ मारुवजउ वाउक्य देविहे कया सुहसउ इह पुणु ताहे दुहिय णामइ रइ दियसिय कमलाणण पाडलगइ। वणे पइसिवि णणयि अच्छइ वर मयरद्धउ कोवि समिच्छई। पुणु पज्जुण्णु वि भणिउ वसंतई तहिं पिहुलवणे वसंतई6) संतई। इह रह तुहूं जि देव मयरद्धउ आयई” तव-झाणहो फतु लद्धउ । पाणिग्गहणु कुणहि म चिरावहि णिय-सामग्गि पुरधिहि दावहिं। परिणेसमि भणेवि गउ तेत्तहिं | राउ कालसंवरु थिउ जत्तहिं । ता तक्खणे मंडउ तिणि रइयउ विज्जामउ दिव्वंवरु छइयउ। घत्ता– रायइं सिरेण णमंतु पेच्छिवि णयणाणंदणु । वइसारिउ उच्छंगि सिारे चुवेिवि णिय णंदणु।। 141 | 1 25 वसन्त ने कहा—"सुर, नर एवं विषधरों के रण में दुर्मथ, काम-प्रभो सुनिए—"मरकत मणि समूह की शिखरों से आढ्य इस विजपाद्य की दक्षिण श्रेणी में नदी सरोवर एवं उपवनों से देवों को विस्मित करने वाला रत्नसंचयपुर नामका एक पुर है। ___ वहाँ विद्याधरों का पति मारुवजय (मरुद्वेग) नामका राजा राज्य करता था। उसकी सैकड़ों प्रकार के सुख देने वाली दे का नाम वायवेगा था। उस रानी की विकसित कमल के समान मुख वाली तथा पाटल गतिवाली रतिनाम की पुत्री थी। वही इस पृथुलवन में प्रवेश कर तथा यहाँ रहती हुई वह किसी मकरध्वज नामक वर की प्राप्ति की कामना में ध्यान में अवस्थित है। पुन: वसन्त ने प्रद्युम्न से कहा-."हे देव यही वह रति है और आप हैं वही मकरध्वज । आप आ गये हैं, उसने आपके रूप में अपने ध्यान का फल पा लिया है। अत: अब इसके साथ पाणिग्रहण कीजिए, देर मत लगाइए। अपनी (इस कन्या रूपी) सामग्री को पुरन्धियों द्वारा दिलवाता हूँ।" "मैं विवाहूँगा।" इस प्रकार प्रतिज्ञा कर वह कुमार वहाँ गया जहाँ कालसंवर राजा स्थित था। उसी समय उस विद्याधर वसन्त ने मण्डप की रचना की तथा उसे विद्यामय दिव्याम्बरों से आच्छादित कर दिया। पत्ता- राजा ने सिर झुकाये हुए नयनानन्दकारी अपने उस नन्दन प्रद्युम्न को देखकर उसका माथा चूम कर उसे गोद में बैठा लिया ।। 141 || (17) (5) सुखसत । 16) तिष्ट नमन | (7) अनया ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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