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8.16.1]
महाका सिंह विसउ पज्जुण्णचरित
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(16) तं णिसुणेविणु तहि मि पइदिउ जहिं जियतु गिरिवरु पसिद्धउ। जो फणि-गण-खपरामर भणहर पालिय सवण-संघु णं गणहरु । णव-पल्लव-घण-दुमहिं समिद्भउ कप्पंघिउ व कुसुम-फल रिद्ध। तहो" तले कुम्म-मयर-झस संगिणि पवहइ विमल तरंग-तरंगिणि।
ल तरुवर तले ससि-किरणुज्जल फलिह-सिलायले। तहिं उवविठ्ठ-दिढ़ एक्कलिय तरुणि तरुण-जण-मणसर-भल्लिय । लच्छिव पोमासणे सुपरिट्ठिय अक्खमाल कर-कमला हिट्ठिय। वर अंगुलि-मणिगणु ढालंतिय फुरियारुण विभाइ णह-पंतिय। धवलुज्जल वर-वत्थ णियच्छिय कय णासग्ग-दिछि सुविसट्ठिय।
सा पेच्छवि भयणु विभउ मणे भणिउ वसंत-खयरु तें तक्वणे। घत्ता— लायणु-वणु जोव्वणु वि एहु) पुहविहि अण्णु ण णारिहि ।
उ दीसइ इहु सरि सग्ग लउ जण-मण-णयण पियारिहि ।। 140।।
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(16) कुमार प्रद्युम्न विपुलवन में एक लावण्यमती तरुणी को देखता है विद्याधर भाइयों का कथन सुनकर कुमार ने उस वन में प्रवेश किया. जहाँ का जयन्तगिरि सुप्रसिद्ध है। वह पर्वत फणिगण, स्वचर एवं अमरों का उसी प्रकार पालन करता है जिस प्रकार गणधर श्रमण-संघ का पालन करता है। वह विपुलवन नव-पल्लवों वाले सघन वृक्षों से समृद्ध एवं पुष्प, फलों से समृद्ध धा, ऐसा प्रतीत होता था, मानों वह वन कल्पवृक्षों से ही युक्त हो।
उस पर्वत के तले कूर्म (कछुवा), मगर एवं झष (मत्स्य) से युक्त विमल तरंग वाली तरंगिणी नदी बहती है। उसी के तट पर तमाल-वृक्ष के नीचे शशि किरण के समान उज्ज्वल एक स्फटिक शिला तल पर अकेली बैठी, तरुण जनों के मन में बाण भेदने वाली लक्ष्मी के समान पद्मासन पर स्थित, अपने कर-कमलों में अक्षमाल धारण किये हुए, उत्तम अंगुली से मणिगण को ढालती हुई (अर्थात् मणिमाला जपती हुई), स्फुरायमान, अरुणाभ नख-पंक्ति से विभूषित धवल, उज्ज्वल, श्रेष्ठ वस्त्रों से वेष्टित विशेष प्रकार से नासाग्र दृष्टि किये हुए एक तरुणी को देखा। उसे देखकर वह मदनकुमार अपने मन में विस्मित हुआ और वसन्त-विद्याधर से तत्काल बोलाघत्ता- यौवन एवं लावण्य समूह में इस तरुणी के समान पृथिवी पर अन्य नारी नहीं है। लोगों के नेत्र एवं
मन को प्रिय लगने वाली इस तरुणी के समान स्वर्ग में भी कोई दिखायी नहीं देता।।। 140।।
(16) 1. म. रु। 2. अ. | 3-4.3
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(11)(O) गर्वत । (2) कल्पवृक्षवत् 143) पर्वतस्य । (4) एा ।