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प्रस्तावना
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अधिक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। (14) अपभ्रंश-गद्य का हिन्दी-गद्य पर प्रभाव:- हिन्दी के 13वीं सदी तक के साहित्य में तुमय पद्यात्मक गई की रचनाएँ गिलती हैं, जिन पर अपभ्रंश का पूर्ण प्रभाव है। क्योंकि अपभ्रंश-काव्यों में पद्यात्मक रचनाओं में यत्र-तत्र गद्य के प्रयोगों की प्रवृत्ति उपलब्ध होती है। विद्यापति की काहाणी कीर्तिलता से अवहट्ट - गद्य का एक अंश प्रस्तुत है।
"तान्हि करो पुत्र युवराजन्हि मांझ पवित्र. अगणेय गुणग्राम प्रतिज्ञा पद, पूरणैक परशुराम, मर्यादा मंगलावास, कविता कालिदास ।" तथा"विस्तरित वर्षाकाल जो पंथी तणउकाल, नाठउ दुकाल । जिणिई वर्षाकालि मधुर गाजइ, दुर्भिक्ष तणा भय भाजइ, जाणे सुभिक्ष भूपति आवंता जय ढक्का बाजइ ।'
-दि. माणिक्यचन्द्रसूरि कृत पृथिवीचन्द्रचरित्र, विरा 1478) और... रात्रिकै विथें । सुपिनै देषे। सुप्रभात राजा के पुन्य प्रतापतें । भद्रबाहु मुनि संघाष्टक लहित आए। आहार
निमित्त । चन्द्रगुप्ति सुपने फल पू0 हैं। -(रइधूकृत पुण्णासव कहा (17वीं सदी अप्रकाशित) इसी प्रकार हिन्दी के संत कवियों में जात-पाँत के विरोध की भावना. रहस्यवादी, सुधारवादी एवं धार्मिक क्रान्ति की भाव-धारा भी अपभ्रंश स है: आयौं। इस दिशा में अपभ्रंश की जोइसारु, परमप्ययासु. पाहुडदोहा, सावयधम्म दोहा आदि रचनाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। (15) हिन्दी महाकाव्यों के शिल्प एवं स्थापत्य के निम्नलिखित मूल-स्रोत अपभ्रंश महाकाव्यों में उपलब्ध हैं:
(अ) आराध्यगुणस्तवन, (आ) पूर्ववर्ती साहित्यकार एवं उनकी कृतियों का स्मरण एवं आभार-प्रदर्शन (इ) सज्जन-प्रशंसा एवं दुर्जन-निन्दा, (ई) प्रेरक गुरु परिचय, (उ) आश्रयदाता-परिचय-प्रशंसा, (ऊ) कवि-परिचय, (ए) आत्म-लघुता-प्रदर्शन, (ऐ) प्रश्नोत्तरी-शैली में कथा-माहात्म्य एवं कथारम्भ, (ओ) देश, नगर, राजा, मन्त्री-वर्णन, (औ) कथा में रोमाण्टिक-तत्वों का प्राधान्य, (अं) अतिमानदीय एवं अतिप्राकृतिक घटनाओं का समावेश, (अ:) कथा-तत्वों पर धार्मिक आवरण, (क) प्राय: अन्यापदेशिक-झौली का प्रयोग.
1. हिन्दी साहित्य की प्रवृतिौँ : डॉ जकिशान खण्डेलवाल (आगरा 1969). Ya R07 2. रस्सा का आ०प०, पृ० 5801