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महाका सिंह बिराउ पज्जुण्णचरिउ
[8.13.1
(13) जहिं मयारि भीसणा
मुहोवमुक्क णीसणा। गिरिद भित्ति दारणा
भमंत मत्त-दारणा। स-रिंछ-चित्त-आउलं
अणेय-कोल-संकुलं । पबुक्करंत-वाणरं
विचित्त कोइला-सरं। तरुवरेहि जं धणं
कुमार) तं पथोवणं । पयट्टु अत्ति जामहिं
णिहालएइ तामहिए। मणोजवाहि"हाणओ
खगो खगप्पहाणओ। छलेण केण लद्धउ .
तरु समाणु वद्धउ। णिएवि सो कुमारिणा
सुतिक्त-सत्य धारिणा। झाडत्ति वंध छिण्णओ
सो धाइउ पइण्णओ। खगो-वसंतु जाणिओ
पदंधिऊण आणिओ। घत्ता--- पुणु जंपिउ मणबेउ महो एमहि दय किजउ ।
जण्ण णमिउ4) सहसत्ति तं 'पहु सयलु खमिजउ ।। 137।।
(13) पयोवन का वर्णन, वसन्त नामक विद्याधर मनोजव विद्याधर को बाँध लेता है किन्तु कुमार प्रद्युम्न उसे
बन्धन मुक्त कर देता है उस पयोवन में भीषण मृगारि थे, जो मुख से गर्जना छोड़ रहे थे। वहाँ वन में गिरीन्द्र रूपी भित्ति को विदारने वाले घूमते हुए मत्त गज थे, चित्त को आकुल करने वाले रीछों तथा अनेक कोलों (वराहों) से संकुल (व्याप्त) था, जो वुकरते हुए वानरों तथा कोकिलों के स्वरों से विचित्र था, जो घने वृक्ष-समूह से ढंका था, उस पयोबन में कुमार प्रद्युम्न ने वेगपूर्वक जब प्रवेश किया, तभी वह देखता है कि खगों में प्रधान मनोजव नामके खग को छल से कोई पकड़ लाया है और उसे वृक्ष से बाँध दिया है। सुतीक्ष्ण शस्त्रधारी कुमार ने जब उस खग को देखा, तब झट से उसके बन्धन काट दिये । वह खग भी बड़े वेग से दौड़कर भाग गया। वसन्त नामके खग ने जब जाना कि मनोजव भाग गया है, तब वह उसके पीछे भागा फिर मनोजव उसको बाँध कर ले आया। घत्ता- इस पर मनोवेग (मनोजव) ने कहा—"मुझ पर अब दया कीजिए, जो मैंने सहसा नमस्कार नहीं
किया, हे प्रभो, उन सभी (भूलों) को क्षमा कीजिए।" ।। 137।।
(13) I. अ. म.।
(13)
प्रद्युमरः । (2) तावत्काल ।
मनोवेग नाम। (4) न नमस्कारहूतं ।