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________________ 8.12.11] महाकद सिंह विरत पाण्णचरित [143 (12) हर-गल अलि-कज्जल कसण-काउ । पंचाणणु इ२ घणघोण राउ। दुविसह शिसिय दाढा-करालु वायर-खर खंधुद्भुसिय वालु । 'संकंतु ढुक्कु हरिणदणासु फणि-असुर-जक्स रणे मद्दणासु । किर संगरि भिडइ ण भिडइ जाम मयणेण वि चलण-हणेवि ताम। अछोडहु किर आढत्तु सिलहिं पच्चक्खु जक्नु तहो जाउ इलहिं । तिणि तूसिवि अप्पिउ पुष्फ-चाउ पुणु विजय-संखु तिहु वण-णिणाउ। अवरूवि पडिवण्णउँ किंकरत्तु। पुणरवि कुमारु तहो पासु पत्तु । खल-खुइ-पिसुण जे दुट्ठ-सील जाणंतवि रूविणि-सुयहो लील। ण मुणंति तो वि स-सहाउ चिट्ठ ता कहिउ पयोवणु।” सुणि कणिट्ठ। यत्ता... उहु दीसइ दूरस्थ तहि पइसेवि जो खणु रहइ । अमराहिवहु समाणु सो संपय अविचलु लहइ।। 136 ।। 10 (12) कुमार प्रद्युम्न को वराह-देव द्वारा पुष्पचाप एवं विजय शंख प्रदान उस वराह-देव का शरीर महादेव के कण्ठ एवं भ्रमर तथा काजल के समान अत्यन्त काला था। वह सिंह के समान घनघोर गर्जना करने वाला था। दुस्सह, तीक्ष्ण दाढ़वाला था, बादर (भोटे). खर (तीखे रुखे) स्कन्ध तक घुसे बाल वाला था। फणी, असुर एवं यक्षों का रण में मर्दन करने वाले उस हरिनन्दन से शंका करता हुआ वह वराह, उस कुमार के पास आया । पुन: जब वह "युद्ध में इससे भिहूँ या नहीं "ऐसा सोच रहा था, तभी मदन ने उसे लात मारी और जब शिला पर ला पटका तभी वह (रूप बदलकर) पक्ष (के रूप में) भूमि पर प्रत्यक्ष हुआ। उस यक्ष ने सन्तोष कर उसे पुष्पचाप अर्पण किया। पुन: त्रिभुवन में निनाद ध्वनि करने वाला विजयशंख देकर उसका किंकरपना भी स्वीकार किया। ___ वह कुमार वहाँ से लौटकर पुनः वज्रदन्त के पास आ गया। वे सभी पुन तो खल, क्षुद्र एवं दुष्ट थे। रूपिणी-सुत की लीला को जानते हुए भी वे अपने धृष्ट स्वभाववश नहीं माने और उन्होंने एक पयोबन की बात उससे कही कि---“हे कनिष्ठ (लघु कुमार) सुनो--. पत्ता-- "दूरी पर वह जो दिखायी देता है, उसमें प्रवेश कर जो क्षण भर तक वहाँ ठहरेगा। वह अमराधिप इन्द्र के समान ही अविचल सम्पत्ति प्राप्त करता है।" ।। 136।। (12) |. अरुंज: ब. रुंक । (123 (1) पयोवन नामेदं । (2) हे प्रधुम्न ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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