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महाकइ सिंह विरह पज्जुण्णचरित
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दुद्धरों मुएण अरि कंधरो(2) वाणरो भिडतओ वि वा परो। णामिउ पपुंछ लेवि भामिओ झाडए धराहि जाम ताइए कपिओ। सुरोह बेवि जंपिओ कुद्धओ तुम अर्हपि सिद्धओ। सेहरो पयत्थिओ सुसुंदरो सामयं सुअंध समप्पियं पुप्फदामय) अब्भु सुरेह-पाउआ जुई दिग्णय सुरेणंत पयण्णयं । णिग्गउ कविठ्ठ-काण णं गओ तुंगो गिरिव्व कज्जलंगओ।
दुद्धरो तहिपि दिछु सिंधुरो घत्ता– घड-हड-रव गज्जंतु दंतु-मुसल गिरि-दारणु।।
सो णिय भुवह वलेण कुमर, साहिउ वारणु।। 133 ।।
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जो सो गय-रूवो सुरवर हूज तासु वसि गुण-पयडण-कणउव" णिसएं लग्गु कसि। संगहिय) पसाहणु हुउ वर-वाहणु कामकरी जहिं कहि तहिं वणियउ अइघण थणिय रूवपरी। तहो अग्गे परिट्ठिउ वंधि अहिदिउ संवरहि कर-सिर-रय-सवणहँ पय मुह णयणहँ रय करहि। तहिं चडिउ कुमारो जो सइ' मारो अवयरियड कामिणि-जण-मोहणु गुण-गण-भूसणु अइ चलियउ।
में नर ने वानर-देव की पूंछ पकड़कर उसे घुमा डाला और धरा पर ला पटका। जब उसने उस कपि-देव को ताड़ित किया, तो वह काँपने लगा तथा कोधित होकर बोला—"तुमने मुझे भी वश में कर लिया है।" फिर प्रसन्न होकर उस देव ने उसे एक सुन्दर शेखर भेंट में दिया और अमृत रूप सुगन्धित पुष्पलता समर्पित की। इसके साथ ही अद्भुत सुरेखा वाली पादुका तथा मधुर शब्द वाली एक वीणा दी। इन सबको लेकर कुमार वहाँ से निकला। फिर वह दुर्धर कपित्थ कानन में गया। वहाँ उसने गिरि समान ऊँचे और कज्जल के समान काले दुर्द्धर सिन्धुर (गज) को देखा। पत्ता- घडहड शब्दों से गरजते हुए दन्तरूपी मुसलों से गिरि को विदारण करते हुए उस वारण (गज) को
भी उस कुमार ने अपने भुजबल से वश में कर लिया ।। 133 ।।
(10) कुमार प्रद्युम्न को गजदेव ने गज एवं मणिधर सर्प ने उसे असि, नपक, सुरत्न, कवच,
कामांगुष्ठिका एवं छुरी भेंट स्वरूप प्रदान की स्वर्ण के गुणों के प्रकट करने के विषय में निशित लगी कसौटी के समान ही गज के वेश में जो वह देव था, वह कुमार के वश में हो गया। वह काम-करी (कामुक-हाथी) अत्यन्त सघन स्तनों वाली परियों के समान सुन्दर हथिनियों द्वारा जहाँ-तहाँ व्रणित (घायल) हो गया था। हथिनियों के सैंड, सिर, दाँत, कान, पैर, मुख एवं
(10) !. अ महि। 2. अ. सारो।
(9) 12} सिंहवर कंधरः । (3) सपरिमलं । (10) (I) सुवर्ण कस-टी। (2) वांदिस्त । (१) पत्र कुत्पत्र ।
(4) अप्सर सोभि यत्र तत्रत्वै ओ बाणित: कायकवी गजः ।