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महाकर सिंह विरह पज्जुष्णचरिउ
तंपि लेवि चलिउ मशुल्भउ
पुण हुवास कुंडांपे दाविये भणिउ मयण इह जो पईसए झंप करिवि ता तर्हि पइट्ठउ दिण्ण ताम वर-वत्थ- दूसहे लेवि तेवि संचलिउ जामहिं दि
भणिउ इहु बिव जो णरो तं सुणेवि मयणो - महावलो हुउ झडत्ति- झड देवि जामहिं
पत्ता- ता तूसिवि अमरेहिं दिष्णु तेहिं मणुअहो दइवाहियहो (2) गिरिवि दिति
(8)
णियवि खलहिं महुमह-तणुब्भउ । एत्थु मरइ जलिऊण भावियँ । सा वि अजउ तिहुवण हो सासीसए । ताम अग्गि- सुरवरु तुट्ठउ । मलिण सुब्भ जे हुँति हुववहे । मेसयारु- गिरि जुवलु तामहिं । विसइ अदसु सो होइ सुरवरो । तहिं पट्टु णिव्वहिय कुलत्थ लो । ह्रय-सरेण कुहणियहिं तामहिं । कुंडल - जुवलु । चिंतियउ फलु ।। 131 ।।
[8.7.2
पुणु कय तमेण ("
तेण जि कमेण ।
( ध्वजा ) प्रदान की। उसे लेकर आते हुए मधुमथन के पुत्र उस मनोभव (कामदेव ) को जब इन दुष्टों ने देखा तो पुनः उसे जलता हुआ अग्निकुण्ड दिखलाया और कहा कि "जो इसमें जल कर मरता है उसका भविष्य उज्ज्वल होता है। पुनः उन्होंने मदन से कहा कि "जो इसमें प्रवेश करता है, वह त्रिभुवन के सभी समर्थ योद्धाओं में अजय होता है !" यह सुनकर वह कुमार झाँप देकर उस कुण्ड में प्रविष्ट हो गया । तब अग्निदेव भी उससे सन्तुष्ट हुआ । अग्निदेव ने उसे श्रेष्ठ दृष्प वस्त्र प्रदान किये। ठीक ही कहा है कि जो मलिन होते हैं वे अग्नि में शुभ्र हो जाते हैं।
वह कुमार जब उन वस्त्रों को लेकर चला तभी उसने मेणाकार पर्वत - युगल देखा । इन विद्याधर पुत्रों ने उस कुमार से कहा ---- हा --- जो मनुष्य इन दोनों के बीच में प्रवेश करता है वह उत्तम अदृश्य देव होता है।
उसको सुनकर महाबल वाला वह मदनकुमार प्रद्युम्न जब वहाँ कुलाचलों के बीच में निर्विघ्न रूप से प्रविष्ट हुआ, तब देव झड़-झड़ करता हुआ उससे लड़ने लगा। उस समय कुमार ने मारो मारो स्वर करते हुए कुहनियों से उस देव को मारा ।
घत्ता—
तब देव ने प्रसन्न होकर उस कुमार को कुण्डल - युगल प्रदान किये। कहा भी गया है कि---" भाग्यशाली पुरुष को पर्वत भी चिन्तित फल देते हैं । " ।। 131 ।।
(8)
कुमार प्रद्युम्न को विशाल पर्वत के आम्रदेव के पास ले जाया जाता है
दुष्टता करने वाला वह वज्रदन्त पुनः उस कुमार प्रद्युम्न को पक्षियों के कलरव वाले विशाल पर्वत पर सारभूत
(7) . अ. छ ।
(7) (2) सुभकर्म अधिक्रस्प
(8) (1) पपेन्ट |