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8.7.1]
महाका सिंह विरहाउ पञ्जण्णचरिउ
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पणिउ इह पइसरि जो मज्जइ तहो पुणु मणे इंछिउ संपज्जइ। ता पज्जुण्णु पइट्ठ तुरंतउ णिय-विग्गह-कर-णियर फुरंत । अड्डोहिवि जलु-पंकय तोडइ कर-कमलहिं कमलिणि अच्छोड.। धाइय रक्खवाल ताणतरे
हक्किड तेहिं कुमारु खणंतरे । पणिउँ पुषण-कालु कहिं आयउ किण्ण मुणहिं एहु जग विक्खायउ। सुर-वाविहि पइसेवि किं पहायउ किउ अपवित्तु सलिलु देवक्कर अंतयालु तुह अज्जु पढुक्कज।
इय गिसुणेवि मयणु अभिट्टउ णं कठीरउ करिहिं पयट्टउ । घत्ता— चरिम देहु रणे अज्जउ अण्णु वि विज्जावल-वलियउ ।
को तहो जगे पडिमल्लु जिणि तिहुवणु परिकलियउ ।। 130।।
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ताव तेण तहिं जिय महारणे
मयर-चिंधु) तहो दिण्णु तक्खणे ।
कुमार प्रद्युम्न की सुर-वापिका के रक्षपाल से मुठभेड़ उन विद्याधरों पुत्रों ने कुमार प्रद्युम्न से कहा—"जो इस बावड़ी में प्रवेश कर स्नान करेगा उसे मनोवांछित सम्पत्ति मिलेगी। तब अपने तेजस्वी शरीर की किरणों से स्फुरायमान शरीर वाला वह प्रद्युम्न तत्काल ही उसमें प्रविष्ट हो गया। उसने उसके जल को आलोड़ित कर दिया, उसके कमलों को तोड़ने लगा और अपने हस्तकमलों द्वारा कमलिनियों को मरोड़ डाला। इसी बीच में उस सरसी (बावड़ी) का रक्षपाल बहाँ दौड़ा आया और उसने उस कुमार को हलकारा और कहा—"क्या तेरा काल (अर्थात् आयुष्य) पूरा हो गया है? तू यहाँ क्यों आया? क्या तू यह नहीं जानता कि यह बावड़ी जमविख्यात देव-हावड़ी है। उसमें तूने क्यों नहाया? तूने इस देवकृत जल को अपवित्र कर दिया है अत: आज (निश्चय) ही तेरा अन्तकाल आ गया है। यह सुनकर वह मदन उस रक्षकदेव से भिड़ गया। मानों सिंह ही हाथी से भिड़ गया हो। .. घत्ता--- वह चरमदेह कुमार (प्रद्युम्न) रण में अजेय था ही, साथ ही विद्याबल से भी बली था। जिसने त्रिभुवन
को समझ लिया था फिर भला जग में उसका प्रतिमल्ल और कौन हो सकता था? || 130।।
कुमार प्रद्युम्न को देव-बापिका के रक्षपाल द्वारा मकरध्वज, अग्निदेव द्वारा दुष्यवस्त्र एवं पर्वतदेव द्वारा
कुण्डल-युगल की भेंट कुमार प्रद्युम्न ने उस रक्षपाल को महारण में जीत लिया। तब रक्षपाल ने भी उसे तत्काल ही मकरचिह्न
(6) (1) किरणा। (2) परिपूर्ण कालजाता। ((I) कामस्य।