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________________ 136] मताकद सिंह विरहाउ पज्जण्णचरित [8.5.3 रउ गरुय धयरु मुअवि ताणतरे पइसइ पिसियर णिलयम्भंतरे। ता णिसियरु कोवेण पलित्तउ णं हुव बहु घिय घडहिं पसित्तउ। गुंजारण-लोयणु उद्धायउ मरहि मणुय कहि-कहिं रे परायउ। भिडइ ण जाम-ताम तर्हि जित्तउ मुहि-पहारहिं महिहि णिहित्तउ । आयछत्तु-चामर-जुवलुल्लउ होयउ तेणकुमारहो भल्लउ । अवरु वि मंडलग्गु वसुणंदउ दिण्णु विपक्ख-पक्ख खय कदउ। जाउहाणु सेव वि मण्णाववि पुणु तहिं दुहँ पासु पराववि । संठिउ ताम तेहिं णिउ तेत्तहिं तहि वेयड्ढ णाय-गुह जेत्तहिं । दूराउ वि जो जंपइ पविर'उ खलु इह पइसइ तहो मणि चिंतिउ फलु । ता सहसत्ति कुमार पइट्ठउ फणि-णिज्जिणे वि लद्ध सुह सिट्ठउ । णायतलप्मु-सेज्ज ससि-विट्ठर पायठवणु अवरु वीणावरु । से ण्णकारि-गिहकारणि विजउ अपणु किं जाय पज्जुण्णुह विज्जउ । घत्ता-- इय लाह समत्तिउ णियवि तहिं पुणु दुहिं असहंतहिं । णिउ वण-सरसिहि सुर-रक्खियहिं संवररामहो पुत्तहिं ।। 129 ।। 15 वेगपूर्वक गया और निशाचर के निलय (गुहा) के भीतर प्रवेश कर गया। तब निशाचर कोप से प्रदीप्त हो उठा. मानों प्रज्ज्वलित अग्नि घड़ों भर घी से सींच दी गयी हो। गुंजा के समान लाल नेत्र वाला वह निशाचर दौड़ा और बोला—“हे मनुष्य मर, तू क्यों और कहाँ से आ गया?" जब तक वह भिड़ भी न पाया था कि तब तक प्रद्युम्न ने मुष्टि प्रहारौं से उसे जीत लिया तथा उसे पृथिवी पर पटक दिया। उस निशाचर ने कुमार प्रद्युम्न को सुन्दर छत्र एवं चंचल चमर-युगल लाकर प्रदान किये। इनके अतिरिक्त भी विपक्ष के पक्ष का क्षय करने वाला वसुनन्दक नाम का मण्डलान (खड्ग) भी प्रदान किया। इस प्रकार उस यातुधान से सेवा-पूजा कराकर वह कुमार प्रद्युम्न पुनः उन्हीं दुष्ट विद्याधर-पुत्रों के पास लौट आया । पुन: वे सभी उस प्रद्युम्न को वहाँ ले गये, जहाँ विजया में नागगुफा थी। उनमें जो दुष्ट वज्रदंष्ट्र था, उसने दूर से ही कहा—"जो इस गुफा में प्रवेश करेगा, उसको मनोवांछित फल मिलेगा।" तब शीघ्र ही वह कुमार गुफा में घुस गया। वहाँ के फणी सर्प को जीत कर शुभ फल प्राप्त किया। उस नागराज ने उसे नागतल्प शैया, शशि-विष्टर (सिंहासन), पादस्थापनी पादुका और उत्तम बीणा प्रदान की, साथ ही सैन्यकारिणी और गृहकारिणी विद्याएँ भी प्रदान की। इन विद्याओं के आगे अन्य विद्याओं को क्या कहा जाये? पत्ता- जब इन लाभों सहित आते हुए उस कुमार को देखा तब उन दुष्टों को वह सहन नहीं हुआ। पुनः राजा कालसंवर के वे पुत्र उस कुमार को देवों से सुरक्षित वन-सरसी (बावड़ी) पर ले गये। 1 129 ।। (5) 1. व. रिखलु। 2. 3 'सि। 150 (1) किं द्वितीयोस्ति अगितु नास्ति द्वितीयः । (2) नीतिवापिकासुररमिता।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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